________________
भगवती सूत्र-श. १ उ. २ देवों का वर्णन
संयतासंयत अर्थात् देशविरत (श्रावक) के तीन क्रिया होती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। श्रावक को अप्रत्याख्यानप्रत्यया क्रिया नहीं लगती है । असंयत सम्यग्दृष्टि के चार क्रियाहोती हैं और मिथ्यादृष्टि तथा मिश्रदृष्टि के पाँचों ही क्रियाएँ होती हैं।
देवों का वर्णन ९६-चाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं . वेयणाए णाणत्तं-मायिमिच्छादिट्ठीउववनगा य अप्पवेयणतरा, अमायिसम्मदिट्ठीउववनगा य महावेयणातरागा भाणियव्वा जोइसवेमाणिया। : विशेष शब्दों के अर्थ-अमायिसम्मदिट्ठिउववणगा-जो अमायी सम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं, जोइसवेमाणिया-ज्योतिषी और वैमानिक देव । ... भावार्थ-९६-यहां वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, ये सब असुरकुमारों के समान कहना चाहिए । इनको वेदना में भिन्नता है । ज्योतिषी और वैमानिक्रों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं, वे अल्प वेदना वाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं वे महावेदनावाले होते हैंऐसा कहना चाहिए।
विवेचन - यहां वाणव्यव्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का वर्णन असुरकुमार देवों के समान बतलाया गया है। इनमें वेदना का भेद है।
इन देवों में अल्पशरीरी और महाशरीरी अपनी अपनी अवगाहना के अनुसार समझना चाहिए । वेदना के विषय में असुरकुमारों के लिए यह कहा था कि-जो संज्ञीभूत हैं वे महावेदना वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत हैं वे अल्प वेदना वेदते हैं । यही बात वाणव्यन्तर देवों में भी समझना चाहिए क्योंकि असुरकुमारों से लेकर वाणव्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं। यह बात इसी उद्देशक में आगे बतलाई जायगी । यथा
.. "असन्नीगं जहानेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु"। अर्थात्-असंज्ञी जीव यदि देवगति में उत्पन्न हों तो जघन्य भवनपतियों में और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org