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भगवती सूत्र-श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि
(आदिमाओ) तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहाः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया । असंजयाण चत्तारि किरियाओ कजंतिः- आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पञ्चरखाणपच्चया । मिच्छादिट्ठीणं पंचः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पचक्खाणपञ्चया, मिच्छादसणवत्तिया । सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच।
विशेष शब्दों के अर्थ-सरागसंजया-सराग संयत, वीयरागसंजया-वीतराग संयत, पमत्तसंजया-प्रमत्त संयत, अप्पमत्तसंजया-अप्रमत्तसंयत, कज्जइ-की जाती है । आइल्लाओ-आदि की = प्रारंभ की = पहले की।
भावार्थ-९३-मनुष्यों का वर्णन नारकियों के समान समझना चाहिए। उनमें इतना अन्तर है कि-जो महाशरीर वाले हैं, के बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और वे कभी कभी आहार करते हैं। जो अल्पशरीर हैं. वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार आहार करते हैं। शेष सब वेदना पर्यन्त नारकियों के समान समझना चाहिए।
९४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ? ९४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
९५ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? - ९५ उत्तर-हे गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्या- . दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यगदृष्टि हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं-संयत, संयतासंयत और असंयत । इनमें से संयत दो प्रकार के कहे गये हैं-सरागसंयत और वीतरागसंयत। इनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रिया रहित हैं । सरागसंपत के दो भेद हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । अप्रमत्तसंयत को एक मायावत्तिया क्रिया लगती है। प्रमत्तसंयत को दो क्रियाएँ लगती
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