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भगवती सूत्र-श. १ उ. २ बेइन्द्रियादि में आहारादि
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महाशरीर वाले पृथ्वीकायिक लोमाहार द्वारा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार श्वासोच्छ्वास लेते हैं। अल्पशरीरी कम आहार करते हैं और कम श्वासोच्छ्वास लेते हैं । कदाचित् आहार लेते हैं और कदाचित् आहार नहीं लेते हैं । यही बात पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के लिए भी कही जा सकती है।
पृथ्वीकायिक जीवों के कर्म, वर्ण और लेश्या का वर्णन नरयिक जीवों के समान समझना चाहिए।
___ सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना को वेदते हैं । इसका कारण यह है कि सब पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और असंज्ञीभूतं वेदना को वेदते हैं। उनकी वेदना 'अजिंदा' अर्थात् अनिर्धारित होती है । वे सभी मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी (अमनस्क) होने के कारण मूच्छित एवं उन्मत्त पुरुष के समान वे बेसुध होकर कष्ट भोगते हैं। उन्हें इस बात का पता नहीं है कि-यह हमारे पूर्व कर्मों का फल है, हमें कौन पीड़ा दे रहा है, कौन मारता है, कौन काटता है और किस कर्म के उदय से यह वेदना हो रही है। पृथ्वीकायिक जीवों में मायी-मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं जैसा कि कहा है
• उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गढहिययमाइल्लो।
सढसीलो य ससल्लो. तिरियाउं बंधए जीवो॥ अर्थात्-उन्मार्ग का उपदेश देने वाला, सन्मार्ग का नाश करने वाला, गूढ़ हृदय वाला अर्थात् हृदय में गांठ रखने वाला, मायावी, शठ स्वभाव. वाला और शल्य वाला जीव, पृथ्वीकाय आदि तिर्यञ्च योनि की आयु बाँधता है ।
यद्यपि पृथ्वीकाय के जीव इस समय मायाचार करते हुए दिखाई नहीं देते हैं, किंतु माया के कारण ही वे पृथ्वीकाय में आये हैं, इसलिए वे मायी-मिथ्यादृष्टि हैं।
___ अथवा-माया का दूसरा अर्थ--अनन्तानुबन्धी कषाय है । जिसके अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है । जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय है । इस कारण पृथ्वीकायिक जीवों के नियमित रूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं।
बेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन
८९ जहा पुढविकाइया तहा जाव-चरिदिया ।
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