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भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार
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है और निधत्त को निकाचित के रूप में परिणत कर लेता है। थोड़ी स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली बना लेता है । क्योंकि असंवृतपन कषाय रूप भी है और कषाय स्थिति-बन्ध का कारण है।
___ असंवृत अनगार मन्द रस वाली कर्म प्रकृतियों को तीव्र रस वाली बनाना आरम्भ करता है अर्थात् मन्द रस वाले कर्मों को तीव्र रस वाले बनाता है । जैसे नीम के पत्तों का रस मन्द होता है यदि उसे औटाया जाय तो वह गाढा हो जाता है वह जितना गाढा होगा उतना ही अधिक कटुक होगा। इसी प्रकार असंवृत अनगार मन्द रस वाले कर्मों को गाढे रस वाले करता है जिससे कि उन कर्मों में तीव्र फल देने की शक्ति आ जाती है। रसबन्ध भी कषाय से होता है और असंवृत अनगार में कषाय की तीव्रता होती है ।
. कर्म बन्ध के चार प्रकार हैं-प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, प्रदेश-बन्ध और अनुभागबन्ध । इनमें प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध योग से होते हैं और स्थिति-बन्ध तथा अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं । असंवृत अनगार के योग अशुभ होते हैं और कषाय तीव्र होते हैं। इसलिए वह चारों ही बन्धों में वृद्धि करता है।
यहां आयुकर्म को पृथक् कर दिया गया है, क्योंकि वह बारबार नहीं बंधता है, किन्तु एक भव में एक ही बार बँधता है और वह भी आयु के त्रिभागादि अवशेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त में ही बँध जाता है।
. असंवत अनगार असातावेदनीय कर्म का बार बार उपचय करता हैं । असंवत अनगार अत्यन्त दुःखी होता है, यह बात बतलाने के लिए असाता वेदनीय कर्म का पृथक् उल्लेख किया गया है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि असाता से बचने के लिए असंवृतपन का त्याग करना चाहिए।
. असंवृत अनगार जिस संसार में परिभ्रमण करता है उसके लिए भगवान् ने अणाइयं अणवयग्गं' आदि विशेषण लगाये हैं । उनका अर्थ यह है-'अणाइयं' अनादि अर्थात् जिसका आदि-प्रारम्भ न हो। अथवा 'अणाइयं' अज्ञातिक अर्थात् जिसका कोई स्वजन नहीं रहता, ऐसे पाप कर्म बांधता है । अथवा 'अणाइयं' यानी, 'ऋणातीत' अर्थात् ऋण से होने वाले दुःख की अपेक्षा भी अधिक दुःखदायी । अथवा 'अणाइयं' यानी अणातीत अर्थात् अतिशय पाप । सारांश यह है कि संसार में पाप तो अनेक हैं किन्तु साधु होकर आस्रव का सेवन करना बहुत बड़ा पाप है। इसलिए असंवृत्त अनगार अतिशय पाप रूप संसार में परिभ्रमण करता है।
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