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भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंयत जीव की गति
अण्णयरेसु-वाणव्यंतर देवलोकों के किसी देवलोक में, देवत्ताए-देव रूप से, उववत्तारो भवंति-उत्पन्न होते हैं।
भंते-हे भगवन् ! तेसि-उन, वाणमंतराणं देवाणं-वाणव्यन्तर देवों के, देवलोयादेवलोक, केरिसा-किस प्रकार के, पण्णता-कहे गये हैं ?
गोयमा-हे गौतम ! से जहा णामए-जैसे, इह मणुस्स लोगम्मि-इस मनुष्य लोक में, णिच्चं कुसुमिय-सदा फूला हुआ, माइय-मयूरित, पुष्प विशेष वाला-मौर वाला, लवइय-लवकित-कौंपलों वाला, थवइय-स्तवित-फूलों के गुच्छों वाला, गुलुइय-लता समूह वाला, गोच्छिय-गुच्छों वाला, जमलिय-यमलित-समान श्रेणी के वृक्षों वाला, जुवलिययुगल वृक्षों वाला, विणमिय-फल फूल के भार से झुका हुआ, पणमिय-फल फूल के भार से झुकने की शुरुआत वाला, सुविभतपिडिमंजरीवडेंसगधरे-विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला, इस प्रकार के विशेषणों सहित, असोगवणे-अशोक वन, सत्तवण्णवणे-सप्तपर्ण वन, चंपयवणे-चम्पक वन, चूयवणे-आम्रवन, तिलगवणे-तिलक वन, लाउवणे-तूम्बे की लताओं का वन, णिग्गोहवणे-बड़ वृक्षों का वन, छत्तोहवणे-छत्रौघ वन, असणवणे-अशन वृक्षों का वन, सणवगे-सन वृक्षों का वन, अयसिवणे-अलसी के पौधों का वन, कुसुंभवणे-कुसुम्ब वृक्षों का वन, सिद्धत्थवणे-सिद्धार्थ -सफेद सरसों का वन, बंधुजीवगवणे-बन्धुजीवक-दुपहरिया वृक्षों का का वन, इत्यादि वन, सिरीए-शोभा से, अईव अईव-अतीव अतीव, उपसोभेमाणे उवसोमेमाणे-सुशोभित होता है । एवामेव-इसी तरह से, तेसि वाणमंतराणं देवाणं-उन वाणव्यन्तर देवों के, देवलोगा-देवलोक, जहण्णेणं-जघन्य दसवाससहस्सटिइएहि-दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, पलिओवमट्ठिइएहि-एक पल्योपम की स्थिति वाले, बहूहि-बहुत से, वाणमंतरेहि देवेहि-वाणव्यन्तर देवों से, य-और, तद्देवीहि-उनकी देवियों से, आइण्णा-आकीर्णव्याप्त, विकिण्णा-व्याकीर्ण-विशेष व्याप्त, उवत्थडा-उपस्तीर्ण-एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, संथडा-परस्पर मिले हुए, फुडा-स्फुट-प्रकाश वाले, अवगाढगाढा-अत्यन्त अवगाढ, उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा-सुशोभित, चिटति-रहते हैं।
तेसि वाणमंतराणं देवाण-उन पाणव्यन्तर देवों के, देवलोया-देवलोक, एरिसगाइस प्रकार के, पणत्ता-कहे गये हैं । से तेणठेग-इस कारण से, एवं बुच्चइ-इस प्रकार कहा जाता है कि, जीवे गं असंजए जाव देवे सिया-असंयत जीव मर कर कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता है।
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