________________
१०८
...
भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असंयत जीव की गति
आया हुआ माल उतरता हो वह 'स्थलपट्टण' है । जहाँ सब प्रकार के बहुमूल्य पदार्थ - हाथी, घोड़े रत्न आदि बिकते हों उसे भी पट्टण कहते हैं । कोई रत्न भूमि को पट्टण ( पत्तन ) कहते है । आश्रम - तपस्वी और संन्यासियों के रहने के स्थान को आश्रम कहते हैं ।
सन्निवेश - जहाँ दूध दही बेचने वाले लोग रहते हैं वह सन्निवेश कहलाता है । उसे 'घोष' भी कहते हैं ।
भगवान् फरमाते हैं कि इन स्थानों में से किसी भी स्थान में रहता हो किन्तु जो अकाम निर्जरा करता है वह देव होता है ।
अज्ञानपूर्वक की जाने वाली अर्थात् मोक्ष से रहित अकामनिर्जरा हैं। ज्ञान पूर्वक की जाने से की जाने वाली निर्जरा - सकाम निर्जरा है ।
Jain Education International
प्राप्ति के योग्य निर्जरा की अभिलाषा वाली अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की कामना
जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है वह पूर्वोक्त स्थानों में से किसी भी स्थान में रहता हुआ मिथ्यादृष्टि पुरुष, मोक्ष योग्य निर्जरा की अभिलाषा रहित आहार आदि की अभिलाषा वाला होते हुए आहार आदि के संयोग न मिलने के कारण क्षुधादि को सहन करने वाला अकाम निर्जरा वाला कहलाता है । वह भूख प्यास सहन करता है, ब्रह्मचर्य पालन करता है, स्नान नहीं करता, स्वेद ( पसीना ), जल्ल ( पसीने पर लगी हुई रज), मल (जल्ल का जम जाना) पङ्क ( पसीने से जल्ल का गीला होना) इन सब को ह करता हैं । इस प्रकार थोड़े काल तक या बहुत काल तक वह आत्मा को क्लेश पहुंचाता है । फिर भी उसके इन कार्यों से वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इस अकामनिर्जरा के कारण वह वाणव्यन्तर देवो में जन्म लेता है ।
कई ज्ञानी सकाम - निर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं और कई मिथ्यात्वी अकामनिर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं। इन दोनों के देवलोक में जाने में क्या अन्तर है ? यह बताने के लिए कहा है कि अकाम-निर्जरा वाले वाणव्यन्तर देव होते हैं और सकाम निर्जरा वाले परलोक की उत्तम से उत्तम स्थिति प्राप्त करके मोक्ष की भी आराधना कर सकते हैं । इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने पूछा है कि हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के देवलोक कैसे होते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने अशोक वन आदि वनों की उपमा देकर बतलाया हैं कि जैसे- अशोक वन आदि पल्लवित और पुष्पित होते हैं तब उनकी शोभा • अद्भुत होती है, उसी प्रकार उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोकों की शोभा भी अद्भुत है ।
* इन स्थानों का अर्थ दूसरी टीकाओं में दूसरी तरह से भी दिया है ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org