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८६ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन
४७ उत्तर - हे गौतम! कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं, तथा कितनेक जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और तदुभयारम्भी भी नहीं हैं, किन्तु अनारम्भी हैं ।
४८ प्रश्न - हे भगवन् ! आप इस प्रकार किस कारण से कहते हैं कि - "कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं' इत्यादि पूर्वोक्त उत्तर फिर से उच्चारण करना चाहिए ।
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४८ उत्तर - हे गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं वे सिद्ध भगवान् हैं, वे आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं किन्तु अनारम्भी हैं । जो संसारसमापन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा - संयत और असंयत । इनमें से जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । जो अप्रमत्त संयत हैं, वे आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । जो प्रमत्तसंयत हैं, वे
शुभ योग अपेक्षा आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं, किंतु अनारम्भी हैं और अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं। और तदुभयारम्भी भी हैं, किंतु अनारम्भी नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा से आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किंतु अनारम्भी नहीं हैं । इसलिए हे गौतम! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं, यावत् कितनेक जीव अनारम्भी भी हैं ।'
विवेचन-- 'आरम्भ' शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है । किसी कार्य को शुरू करना भी 'आरम्भ' कहलाता है, किन्तु यहां पर यह अभिप्राय नहीं है । यहाँ 'आरम्भ' का अर्थ है - ऐसा सावद्य कार्य करना जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचता हो या उसके प्राणों का घात होता हो । आशय यह है कि आश्रवद्वार में प्रवृत्ति करना आरम्भ कहलाता है ।
आत्मारम्भ का अर्थ यह है- आत्मा को आश्रवद्वार में प्रवृत्त करना या आत्मा द्वारा स्वयं आरम्भ करना । जो ऐसा करता है वह आत्मारम्भी कहलाता है । दूसरे को आश्रव में प्रवृत्त करना या दूसरे के द्वारा आरम्भ कराना - परारम्भ है और ऐसा करने वाला परा
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