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भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन
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रम्भी कहलाता है । आत्मारम्भ और परारम्भ दोनों करने वाला-तदुभयारम्भी कहलाता है । जो जीव आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ से रहित होता है, वह अनारम्भी कहलाता है।
. . 'आयारम्भा वि परारम्भा वि' यहां पर जो 'अपि' शब्द दिया है, वह पूर्वपद और उत्तरपद के संबंध को सूचित करता है। यह शब्द 'आत्मारम्भीपन' इत्यादि धर्मों का एकाश्रयपन को बतलाने के लिए अथवा भिन्नाश्रयपन को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है । एकाश्रयपन कालभेद से समझना चाहिए। यथा-एक ही जीव किसी समय आत्मारम्भी होता है, किसी समय परारम्भी होता है और किसी समय उभयारम्भी होता है । इसीलिए अनारम्भी नहीं होता। भिन्नाश्रयपन भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए कि कितनेक जीव अर्थात् असंयत जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभयारम्भी भी होते हैं। कितनेक जीव अर्थात् सिद्ध आदि जीव न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, न तदुभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं ।
- पहले जीव के दो भेद किये गये हैं—संसार-समापन्नक अर्थात् संसारी और असंसारसमापन्नक अर्थात् असंसारी-सिद्ध । सिद्ध जीव अनारम्भी हैं।
- संसारी के दो भेद हैं-संयत और असंयत । जो जीव सब प्रकार की बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से और विषय कषाय से निवृत्त हो गये हैं, वे संयत कहलाते हैं । जो विषय कषाय से निवृत्त नहीं हुए हैं और आरम्भ में प्रवृत्त हैं, वे असंयत कहलाते हैं । .. संयत भी दो प्रकार के हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । अप्रमत्तसंयत न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न तदुभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । प्रमत्तसंयत के भी दो भेद हैं-शुभ योग वाले और अशुभ योग वाले । उपयोगपूर्वक-सावधानतापूर्वक योग की प्रवृत्ति को शुभयोग कहते हैं । उपयोगपूर्वक पडिलेहणा (प्रतिलेखना)आदि करता हुआ संयत अनारम्भी होता है। उपयोग के बिना प्रतिलेखनादि करना अशुभ योग है। जैसा कि कहा
पुढवी-आउक्काए-तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं ।
पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥ अर्थात्-प्रतिलेखनाप्रमत्त अर्थात् उपयोग रहित होकर प्रतिलेखना करने वाला पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छह कायों का विराधक होता है।
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