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भगवती सूत्र - श. १ उ. १ तिर्यञ्च और मनुष्य का वर्ण
शब्दार्थ - पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं- पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों की, ठिईस्थिति, मणिकर्ण - कह कर, उस्सासो – उनका उच्छ्वास, वेमायाए – विमात्रा से कहना चाहिए । अणाभोगणिव्वत्तिओ आहारो-उनका अनाभोगनिर्वर्तित आहार, अविरहिओ - विरह रहित, अणुसमयं - प्रति समय होता है । आभोगणिव्वत्तिओ - आभोग निर्वर्तित आहार, जहण्णेणं-जघन्य, अंतोमुहुत्तस्स - अन्तर्मुहूर्त्त और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, छट्ठभत्तस्सषष्ठ भक्त अर्थात् दो दिन बीतने पर होता है । सेसं जहा चउरदियाणं- शेष वर्णन चौइन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए। जाव - यावत्, अचलियं कम्मं - अचलित कर्म की, णो णिज्जरेंति - निर्जरा नहीं करते हैं ।
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एवं मणुस्साण वि - मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए, नवरं - किंतु इतनी विशेषता है कि, आभोगणिव्वत्तिए उनका आभोग निर्वर्तित आहार, जहणेणंजघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, अट्ठमभत्तस्स - अष्टम भक्त अर्थात् तीन दिन बीतने पर होता है ।
पञ्चेन्द्रिय जीवों द्वारा गृहीत आहार, सोइंदिय ५ वेमायत्ताए – श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय, इन पांचों इन्द्रिय रूप में विमात्रा से भुज्जो भुज्जो - बारम्बार, परिणमंति- परिणत होता है, सेसं जहा तहेव जाव णिज्जरेंतिशेष सब पहले के समान समझना चाहिए यावत् अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं ।
भावार्थ - ४२ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की स्थिति कहकर उनका उच्छ्वास विमात्रा - विविध प्रकार से कहना चाहिए। उनके अनाभोगनिवर्तित आहार निरन्तर प्रतिसमय होता है । आभोगनिर्वर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट षष्ठभक्त अर्थात् दो दिन बीत जाने पर होता है। शेष वर्णन चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए यावत् वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं ।
४३ - मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका आभोग निर्वर्तत आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अष्टम भक्त ( तीन रात दिन ) बीतने पर होता है ।
पञ्चेन्द्रियों द्वारा गृहीत आहार श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय,
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