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"भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद पवादि सूत्र
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हैं । और कर्म की स्थिति आदि की वृद्धि करना 'उद्वर्तना करण' है।
___जिस प्रकार अपवर्तन उद्वर्तन के लिए कहा गया है उसी प्रकार संक्रमण, निधत्त और निकाचित के लिए भी कह देना चाहिए ।
. मूल प्रकृतियों से अभिन्न उत्तर प्रकृतियों का अध्यवसाय विशेष द्वारा एक का दूसरे रूप में बदल जाना 'संक्रमण' कहलाता है । जैसा कि कहा
मूलप्रकृत्यभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः ।
न स्वात्माऽमूर्तस्वादध्यवसाय प्रयोगेण ॥ अर्थ-गुणतः अर्थात् गुण की अपेक्षा मूल प्रकृतियों से अभिन्न उत्तर प्रकृतियों को अध्यवसाय विशेष द्वारा संक्रमित किया जाता है, किन्तु आत्मा अमूर्त होने से आत्मा का संक्रमण नहीं होता है।
आत्मा की तरह आकाश भी अमूर्तिक है, किन्तु आकाश जड़ है और आत्मा चेतन है । इसलिए आत्मा में अध्यवसाय विशेष की शक्ति है । वह उस शक्ति द्वारा कर्मप्रकृतियों में संक्रमण कर देता है। संक्रमण के विषय में दूसरे आचार्य का मत यह है
मोत्तूण आउयं खल, सणमोहं चरित्तमोहं ।
सेसाणं पगईणं, उत्तरबिहिसंकमो मणिओ॥ अर्थ-आयुकर्म, दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय, इनको छोड़कर शेष प्रकृतियों का उत्तर प्रकृतियों के साथ जो संचार होता है वह 'संक्रमण' कहलाता है ।
उदाहरणार्थ कल्पना कीजिये-किसी प्राणी के शुभ कर्म उदय में आये । वह सातावेदनीय का अनुभव कर रहा है । इसी समय उसके अशुभकर्मों की कुछ ऐसी परिणति हुई कि उसका सातावेदनीय असातावेदनीय में परिणत होगया। इसी प्रकार असातावेदनीय भोगते हुए शुभ कर्मों की कुछ ऐसी परिणति हुई कि उसका असातावेदनीय सातावेदनीय में परिणत होगया । यह वेदनीय कर्म का 'संक्रमण' कहलाया । इसी प्रकार दूसरी कर्म प्रकृतियों के संक्रमण के विषय में समझ लेना चाहिए ।
निधत्त-भिन्न भिन्न पुद्गलों को इकट्ठा करके रखना 'निधत्त' करना कहलाता है अर्थात् कर्म पुद्गलों को एक दूसरे पर रच देना, जैसे एक थाली में बिखरी हुई सुइयों को एक के ऊपर दूसरी आदि के क्रम से जमा देना-'निधत्त' करना कहलाता है।
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