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भगवती सूत्र-श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन
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केवइयं कालं-कितने काल की, पण्णता-कही गई है ?
गोयमा-हे गौतम ! जहणेणं--जघन्य, अंतोमहुत्तं--अन्तर्मुहूर्त और, उक्कोसेणंउत्कृष्ट, बावीसं वाससहस्साई-बाईस हजार वर्ष की है।
भंते-हे भगवन् ! पुढवीकाइया--पृथ्वीकाय के जीव, केवइयकालस्स-कितने काल में, -आणमंति-श्वास लेते हैं और, पाणमंति-निःश्वास छोड़ते हैं ४ ?
गोयमा-हे गौतम ! वेमायाए-विमात्रा से अर्थात् विविध काल में, आणमंतिश्वासोच्छ्वास लेते हैं अर्थात् इनके श्वासोच्छ्वास का समय स्थिति के अनुसार नियत नहीं
हे भगवन् ! क्या, पुठवीकाइया-पृथ्वीकाय के जीव, आहारट्ठी-आहार के अभिलाषी होते हैं ?
हंता-हां, गौतम ! आहारट्ठी-आहार के अभिलाषी होते हैं।
पुढवीकाइयाणं-पृथ्वीकाय के जीवों को, केवइकालस्स-कितने काल में, आहारो -आहार की अभिलाषा, सनुप्पज्जा-उत्पन्न होती है ?
गोयमा-हे गौतम ! अणुसमयं-अनुसमय-प्रतिसमय, अविरहिए-विरह रहित-- निरन्तर, आहारठे-आहार की अभिलाषा, समुप्पज्जइ-उत्पन्न होती है।
.. हे भगवन् ! पुढवीकाइया-पृथ्वीकाय के जीव, किं-क्या, आहारं आहारैति-आहार करते हैं ?
गोयमा-हे गौतम ! दखओ-द्रव्य की अपेक्षा, जहा मेरइयाणं-जिस प्रकार नारकी जीवों में कहा उसी तरह कह देना चाहिये अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वे अनन्तप्रदेशी द्रव्य का आहार करते हैं। जाव-इत्यादि सारा वर्णन नारकी जीवों के समान जानना चाहिए। जाव-यावत् पृथ्वीकाय के जीव, जिव्वाघाएण-निर्व्याघात आश्री अर्थात् व्याघात न हो तो, छदिसिं-छहों दिशाओं से आहार लेते हैं, वाघायं पडुच्च-व्याघात आश्री अर्थात् व्याघात हो तो, सिय-कदाचित्, तिविसि-तीन दिशाओं से, सिय-कदाचित्, चउद्दिसि-चार दिशाओं से और, सिय-कदाचित, पंचदिसि-पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। वण्णओ-वर्ण की अपेक्षा, कालणीलपीयलोहियहालिहसुविकलाणं-काला, नीला, पीला, लाल, हारिद्र-हल्दी जैसा तथा सफेद वर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं। गंधओ-गन्ध से, सुम्मिगंधाई २-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध वाले, दोनों गन्ध वाले, रसओ-रस की अपेक्षा, तिताई-तिक्त आदि पांचों रस वाले, फासओ-स्पर्श की अपेक्षा, कालाई ८-कर्कश आदि आठों स्पर्श वाले
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