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७२ भगवती सूत्र - श. १. उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन
ऊपर अग्निकोण में रहा हुआ होता है तब उसके तीन तरफ यानी ऊपर, पूर्व और दक्षिण में अलोक होता है तब वह तीन दिशाओं का आहार लेता । इसी प्रकार नीचे अग्निकोण में रहा हुआ जीव, नीचे पूर्व और दक्षिण में अलोक आजाने से शेष तीन दिशाओं से आहार लेता है । जब ऊपर या नीचे में से एक तरफ अलोक होता है और पूर्वादि चारों दिशा में से एक दिशा में अलोक होता है तब शेष चार दिशाओं से आहार ग्रहण करता है, जब छह दिशाओं में से किसी एक दिशा में अलोक होता है तब पांच दिशा से आहार ग्रहण करता है, तात्पर्य यह है कि किसी भी कोने में रहे हुए जीव के जिस तरफ अलोक होता है, उस तरफ का आहार नहीं लेता है, शेष दिशाओं से आहार लेता है ।
पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के लिये नैरयिक जीवों के आहार की भलामण दी है, किंतु इस में इतनी विशेषता है कि नैरयिंक और देवों में 'ओसण्णं कारणं पडुच्च'- - शब्द दिया है जिसका अर्थ है - प्राय: करके सामान्यतया । किन्तु यह बात पृथ्वीकायिक जीवों के लिये नहीं कहनी चाहिये । क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद में कहा है- 'णवरं ओसण्णं कारणं न भण्णइ' अर्थात् इन में 'ओसण्ण कारण ( सामान्यतया ) नहीं कहना चाहिये । इसी तरह सभी औदारिक दण्डकों में समझना चाहिये ।
पृथ्वीकाय के जीवों के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है, उनके रसनेन्द्रिय नहीं होती है । जिसके रसनेन्द्रिय होती है, वह उसके द्वारा आहार का स्वाद लेता है, किन्तु यह बात पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में नहीं है । इसलिए पृथ्वीकायिकादि जीव स्पर्शनेन्द्रिय से ही आहार ग्रहण करके उसी के द्वारा उसका आस्वादन करते हैं । इनका स्पर्शन भी एक प्रकार का आस्वादन है ।
पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों में पृथ्वीकाय कि स्थिति पहले बताई जा चुकी है । काय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है । ते काय के जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है । वायुकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है । वनस्पतिकाय के जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है ।
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