Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पर करेगा वह करण पर्याप्त है। यहाँ पर यह स्मरण रखना है— देव और नारक लब्ध्यपर्याप्त नहीं होते पर करणअपर्याप्त होते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च जीव दोनों ही प्रकार के अपर्याप्तक होते हैं।
विकलेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन प्रकार हैं। जिन जीवों के सम्पूर्ण इन्द्रियाँ नहीं होती हैं वे विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव विकलेन्द्रिय हैं।
पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं— संज्ञी और असंज्ञी । समनस्क को संज्ञी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न सहज की उबुद्ध होता है कि समनस्क और संज्ञी इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है या भिन्न-भिन्न ? उत्तर में निवेदन है— संज्ञी और समनस्क ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। क्योंकि जो जीव संज्ञी है वह मन वाला अवश्य होगा। आगम साहित्य में संज्ञी शब्द का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है तो दार्शनिक साहित्य में समनस्क शब्द का। जब दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है तो दार्शनिकों ने समनस्क शब्द का व्यवहार क्यों किया है ? हमारी दृष्टि से संज्ञा शब्द अनेक अर्थों व्यक्त करता है। संज्ञा का समान्य अर्थ है— चेतना या ज्ञान। चेतना और ज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी हैं। पर वे संज्ञी नहीं हैं। पर यहाँ पर संज्ञी से ज्ञानसंज्ञा वाले जीवों को ग्रहण नहीं किया है। अनुभवसंज्ञा के भी आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ये चार प्रकार हैं। आहारसंज्ञा वेदनीयकर्म का उदय है और शेष तीनों संज्ञा मोहनीयकर्म के उदय का फल हैं। अनुभवसंज्ञा भी सभी संसारी जीवों में होती है ।
आगम साहित्य में संज्ञा के दस प्रकार भी बताये हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । ये दस संज्ञायें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में होती हैं। ये दस संज्ञाएं भी अनुभव रूप ही हैं। इस प्रकार ज्ञान रूप और अनुभवरूप संज्ञा के आधार पर संज्ञी नहीं कहा जा सकता।
जिस संज्ञा के आधार पर संज्ञी शब्द व्यवहृत हुआ है, वह संज्ञा तीन प्रकार की है— दीर्घकालिकी, तुवादिकी और दृष्टिवादिकी। जिसमें दीर्घकालिकी संज्ञा हो वह संज्ञी है। दीर्घकालिकी संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में घटने वाली घटनाओं पर चिन्तन होता है। दीर्घकालिकी संज्ञा को संप्रधारणसंज्ञा भी कहा है। ऐसे संज्ञी को समनस्क कहा है। देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च और गर्भज मनुष्य ये सभी संज्ञी हैं। इस प्रकार संसारी जीव के चौदह प्रकार हैं।
प्रस्तुत आगम में अनेक दृष्टियों से और अनेक प्रश्नों के माध्यम से जीव और जीव के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है।
शरीर
भगवतीसूत्र शतक १६, उद्देशक १ में तथा अन्य स्थलों पर भी शरीर के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं प्रस्तुत हैं । भगवान् महावीर ने शरीर के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच प्रकार बताये हैं । आत्मा अरूप है, अशब्द है, अगन्ध है, अरस है और अस्पर्श है। इस कारण वह अदृश्य है। पर मूर्त शरीर से बंधने के कारण वह दृग्गोचर होता है। आत्मा जब तक संसार में रहेगा वह स्थूल या सूक्ष्म शरीर के आधार से ही रहेगा। जीव की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे प्राय: सभी शरीर के द्वारा होती हैं । औदारिक शरीर की निष्पत्ति स्थूल पुद्गलों के द्वारा होती है। उस शरीर का छेदन-भेदन भी होता है और मोक्ष की उपलब्धि भी इसी शरीर के द्वारा होती हैं।
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