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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[११५ प्र.] भगवन् ! एक स्नातक दूसरे स्नातक के स्वस्थान - सन्निकर्ष से चारित्र - पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ?
[१,१५ उ.] गौतम ! वह न तो हीन है और न अधिक है, किन्तु तुल्य है । पंचविध निर्ग्रन्थों के जघन्य - उत्कृष्ट चारित्रपर्यायों का अल्पबहुत्व
११६. एएसि णं भंते ! पुलाग - बकुस - पडिसेवणाकुसील - कसायकुसील - नियंठ-सिणायाणं जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! पुलागस्स कसायकुसीलस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोह वितुल्ला सव्वत्थोवा। पुलागस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । बउसस्स पडिसेवणाकुसीलस्स य एएसिं णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अनंतगुणा । बउसस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा । पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा। कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । नियंठस्स सिणायस्स य एएसि णं अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अनंतगुणा । [दार १५ ]
[११६ प्र.] भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र - पर्यायों में किसके चारित्र - पर्याय किनके चारित्र - पर्यायों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
[११६ उ.] गौतम ! (१) पुलाक और कषायकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र - पर्याय परस्पर तुल्य हैं और सबसे अल्प हैं । (२) उनसे पुलाक के उत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्तगुण हैं । (३) उनसे बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र - पर्याय परस्पर तुल्य हैं और अनन्तगुणे हैं। (४) उनसे बकुश के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुणे हैं । (५) उनसे प्रतिसेवनाकुशील के उत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्तगुण हैं। (६) उनसे कषायकुशील के उत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्तगुण हैं और (७) उनसे निर्ग्रन्थ और स्नातक, इन दोनों के अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्तगुण हैं और परस्पर तुल्य हैं । [ पन्द्रहवाँ द्वार ]
विवेचन—स्वस्थान- सन्निकर्ष और परस्थान - सन्निकर्ष — पुलाक आदि का पुलाक आदि स्व-स्व के साथ सन्निकर्ष—संयोजन को 'स्वस्थान- सन्निकर्ष' कहते हैं। पुलाक का बकुश आदि पर के साथ सन्निकर्ष को परस्थान - सन्निकर्ष कहते हैं ।
चारित्र - पर्याय : हीन, तुल्य और अधिक – विशुद्ध संयम सम्बन्धी विशुद्धतर ( चारित्र) पर्यायों की अपेक्षा अविशुद्ध संयम सम्बन्धी अविशुद्धतर ( चारित्र) पर्याय 'हीन' कहलाते हैं । गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध से उन न्यून पर्यायों वाला साधु भी 'हीन' कहलाता है। शुद्ध पर्यायों की समानता के कारण चारित्रपर्याय परस्पर ‘तुल्य' कहलाते हैं और विशुद्धतर पर्यायों के सम्बन्ध से 'अधिक' (चारित्रपर्याय) कहलाते हैं।
सजातीय चारित्रपर्यायों से षट्स्थानपतित : कैसे और क्यों ? – एक पुलाक, दूसरे पुलाक के साथ सजातीय चारित्र-पर्यायों से षट्स्थानपतित होता है । षट्स्थानहीन यथा— ( १ ) अनन्तभागहीन, (२) १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९००