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बिइए एगिदियसए : चउत्थाइ-एक्कारस-पजंता उद्देसगा
द्वितीय एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त
परम्परोपपन्नक कृष्ण. एके. के चौथे से ग्यारहवें शतक तक की वक्तव्यता
१. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए एगिदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्ससते वि भाणियव्वा जाव अचरिमकण्हलेस्सा एंगिदया।
॥ तेतीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : चउत्थाइ-एक्कारस-पजंता उद्देसगा समत्ता॥
[१] औधिक एकेन्द्रियशतक में जिस प्रकार ग्यारह उद्देशक कहे, उसी प्रकार इस अभिलाप से यावत् अचरम और चरम कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पर्यन्त कृष्णलेश्यीशतक में भी कहने चाहिए। ॥ तेतीसवाँ शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक समाप्त।
*** तइए एगिदियसए पढमाइ-एक्कारस-पजंता उद्देसगा
तृतीय एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक द्वितीय एकेन्द्रियशतकानुसार तृतीय नीललेश्यी एकेन्द्रियशतक-वक्तव्यता
१. जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहिं वि सयं भाणितव्वं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥ तेतीसइमे : ततिए एगिंदियसए पढमाइ-एक्कारस-पजंत्ता उद्देसगा समत्ता॥
॥ तेतीसइमे सए : ततियं एगिदियसयं समत्तं ॥३३-३॥ [१] जैसे कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियविषयक शतक कहा, वैसे ही नीललेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी समग्र शतक कहना चाहिए।
"हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। • ॥ तेतीसवाँ शतक : तृतीय एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक-पर्यन्त समाप्त॥ ॥ तेतीसवाँ शतक : तृतीय एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण॥
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