Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 795
________________ ६६४] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पज्जत्तएसु चेव। _[६८] उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव का कथन स्वस्थान में उपपात के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वी चरमान्त में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिकादि जीवों के उपपात का कथन समझना किन्तु इनमें एक समय की विग्रहगति नहीं होती। उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों का कथन भी स्वस्थान के समान है। उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के एक समय की विग्रहगति नहीं होती। शेष पूर्ववत् यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक का पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों में उपपात का कथन जानना चाहिए। विवेचन—तीन या चार समय की विग्रहगति क्यों और कहाँ–जब कोई स्थावर अधोलोक क्षेत्र की नाडी के बाहर पूर्वादि दिशा में मरकर प्रथम समय में त्रसनाडी में प्रवेश करता है, दूसरे समय में ऊपर जाता है और तत्पश्चात् एक प्रतर में पूर्व या पश्चिम में उसकी उत्पत्ति होती है, तब अनुश्रेणी में जाकर तीसरे समय में उत्पन्न होता है । इस प्रकार तीन समय की विग्रहगति होती है। जब कोई जीव त्रसनाडी के बाहर वायव्यादि विदिशा में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब एक समय में पश्चिम या उत्तर दिशा में जाता है, दूसरे समय में त्रसनाडी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊँचा जाता है और चौथे समय में अनुश्रेणी में जाकर पूर्वादि दिशा में उत्पन्न होता है। यहाँ चार समय की विग्रहगति होती है। दो या तीन समय की विग्रहगति कब और क्यों-जब अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव ऊर्ध्वलोक की त्रसनाडी के बाहर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय की विग्रहगति होती है। इसका कारण यह है कि बादरतेजस्काय मनुष्यक्षेत्र में ही होता है। इसलिए एक समय में मनुष्यक्षेत्र से ऊपर जाता है तथा दूसरे समय में वसनाडी से बाहर रहे हुए उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होता है। इस प्रकार यह दो समय की विग्रहगति होती है। अथवा एक समय में मनुष्यक्षेत्र से ऊपर जाता है दूसरे समय में त्रसनाडी से बाहर पूर्वादि दिशा में जाता है और तीसरे समय विदिशा में रहे हुए उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होता है। लोक के चरमान्त में बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव नहीं होते, किन्तु सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि पांचों होते हैं तथा बादर वायुकाय भी होता है । इन छह के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से बारह भेद होते हैं। लोक के पूर्वी-चरमान्त से पूर्व-चरमान्त में ही उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय से लेकर चार समय तक की विग्रहगति होती है, क्योंकि पसमें अनुश्रेणी और विश्रेणी दोनों गतियाँ होती हैं। पूर्व-चरमान्त से दक्षिण-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की दो, तीन या चार समय की ही विग्रहगति होती है। वहाँ अनुश्रेणी न होने से एक समय की विग्रहगति नहीं होती। अतएव विश्रेणीगमन में दो आदि समय की विग्रहगति का कथन किया गया है। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९६०-९६१ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३७०५-३७०६


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