Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पढमे एगिंदियसए : तइओ उद्देसओ
प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक
[ ६७१
१. कतिविहा ण भंते ! परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ?
गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्त्रणा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा — पुढविकाइया०, भेदो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइय त्ति ।
[१ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ?
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[१ उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं, यथा- पृथ्वीकायिक इत्यादि । उनके चार-चार भेद वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहने चाहिए।
२. परंपरोववन्नगअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ?
एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमो उद्देसओ जाव लोगचरिमंतो त्ति ।
त्ति ।
[२ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व- चरमान्त में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् पश्चिम- चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ?
[२ उ.] गौतम ! इस अभिलाप से प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् लोक के चरमान्त पर्यन्त कहना । ३. कहि णं भंते ! परंपरोववन्नगपज्जत्तगबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु वि पुढवीसु। एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देसए जाव तुल्लद्वितीय
सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ।
॥ चोतीसइमे सए : पढमे अवांतरसए : तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ ३४ । १।३॥ [३. प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ हैं ? [३ उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा वे आठ पृथ्वियों में हैं। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार प्रथम उद्देशक में उक्त कथनानुसार यावत् तुल्य-स्थिति तक कहना चाहिए।
‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं ।
॥ चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक : तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
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