Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 843
________________ ७१२] चत्तालीसइमंसयं एक्कवीसं असन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाई चालीसवां शतक : इक्कीस संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक पढमे सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसए : पढमो उद्देसओ प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक संजीपंचेन्द्रिय के उपपातादि की प्ररूपणा १. कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? ० उववातो चउसु वि गतीस। संखेजवासाउय-असंखेजवासाउय-पज्जत्त-अपज्जत्तएसु य। न कतो वि पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति। परिमाणं, अवहारो, ओगाहणा य जहा असण्णिपंचेंदियाणं। वेयणिजवजाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वा वेयणिज्जस्स बंधगा, नो अबंधगा। मोहणिजस्स वेयगा वा, अवेयगा वा। सेसाणं सत्तण्ह वि वेयगा, नो अवेयगा। सायावेयगा वा असायावेयगा वा। मोहणिज्जस्स उदई वा, अणुदई वा; सेसाणं सत्तण्ह वि उदई, नो अणुदई। नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अणुदीरगा; सेसाणं छह वि उदीरगा वा, अणुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। समाद्दिट्टी वा, मिच्छाद्दिट्टी वा, समामिच्छदिट्ठी वा। णाणी वा अण्णाणी वा। मणजोगी वा, वइजोगी वा, कायजोगी वा। उवयोगो, वनमाई, उस्सासगा, आहारगा य जहा एगिंदियाणं। विरया वा अविरया वा, विरयाविरया वा। सकिरिया, नो अकिरिया। [१ प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [१ उ.] गौतम ! इनका उपपात चारों गतियों से होता है। ये संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों से आते हैं । यावत् अनुत्तरविमान तक किसी भी गति से आने का निषेध नहीं है। इनका परिमाण, अपहार और अवगाहना असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के समान है। ये जीव वेदनीयकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक अथवा अबन्धक होते हैं । वेदनीयकर्म के तो बन्धक ही होते हैं, अवन्धक नहीं। मोहनीयकर्म के वेदक या अवेदक होते हैं। शेष सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं। वे सातावेदक अथवा असातावेदक होते हैं। मोहनीयकर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं । शेष सात कर्मप्रकृतियों के उदयी होते हैं, अनुदयी नहीं। नाम और गोत्र कर्म के वे उदीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं। शेष छह कर्मप्रकृतियों के उदीरक या अनुदीरक होते हैं । वे कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं । वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं । ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि चार, उच्छ्वास-नि:श्वास और आहारक (-अनाहारक) का कथन एकेन्द्रिय

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