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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ६. एवं सोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव अणंतखुत्तो, नवरं परिमाणं जहा बेइंदियाणं, सेसं तहेव।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥ ४०।१।१॥
[६] इसी प्रकार सोलह युग्मों में अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। इनका परिमाण द्वीन्द्रिय जीवों के समान है। शेष सब पूर्ववत् है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं ॥ ४०॥१॥१॥
७. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कतो उववजंति ? ०
उववातो, परिमाणं, अवहारो' जहा एतेसिं चेव पढमे उद्देसए। ओगाहणा, बंधो, वेदो, वेयणा, उदयी, उदीरगा य जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं तहेव। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। सेसं जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अणंतखुत्तो, नवरं इत्थिवेदगा वा, पुरिसवेदगा वा, नपुंसगवेदगा वा; सण्णिणो, नो असण्णिणो। सेसं तहेव। एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्वं ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥४०।१।२॥
[७ प्र.] भगवन् ! प्रथम समय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[७ उ.] गौतम ! इनका उपपात, परिमाण, अपहार (आहार) प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना। इनकी अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदयी और उदीरक द्वीन्द्रिय जीवों के समान समझना। ये कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं । शेष प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रिय के समान इससे पूर्व अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक जानना। वे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार सोलह ही युग्मों में परिमाण आदि की वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'० इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४० ॥ १ ॥ २ ॥
८. एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेव। पढमो, ततिओ, पंचमो य सरिसगमा। सेसा अट्ठ वि सरिसगमा। चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु नत्थि विसेसो कोयि वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥४०-१।३-११॥
॥ चत्तालीसइमे सते पढमं सन्निपंचेंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ ४०-१॥ [८] यहाँ (इस प्रथम अवान्तर शतक में) भी ग्यारह उद्देशक पूर्ववत् हैं। प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक एक समान हैं और शेष आठ उद्देशक एक समान हैं तथा चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में कोई विशेष बात नहीं है।
१. पाठान्तर—'आहारो'