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णो इट्टे सम
[७-५ प्र.] भगवन् ! यदि वे सक्रिय होते हैं तो क्या उसी भव को ग्रहण करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? .
[७-५ उ.] गौतम ! उनके लिए यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है ।
८. रासीजुम्मकडजुम्मअसुरकुमारा णं भंते! कओ उववज्जंति ?
जहेव नेरतिया तव निरवसेसं ।
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[८ प्र.] भगवन् ! राशियुग्म - कृतयुग्मराशिरूप असुरकुमार (आदि) कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[८ उ.] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ सभी कथन करना चाहिए। ९. एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया, नवरं वणस्सतिकाइया जाव असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जंति । सेसं एवं चेव ।
[९] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक सारी वक्तव्यता इसी प्रकार कहनी चाहिए, विशेष — वनस्पतिकायिक जीव यावत् असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं, (यह कहना चाहिए।) शेष सब पूर्वोक्त कंथन के समान है।
१०. [ १ ] मणुस्सा वि एवं चेव जाव नो आयजसेणं उववज्जंति, आयअजसेणं उववज्जंति । [१०-१] मनुष्यों से सम्बन्धित कथन भी इसी प्रकार वे आत्म-यश से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु आत्मअयश से उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए।
[२] जति आयअजसेणं उववज्जंति किं आयजसं उवजीवंति आयअजसं उवजीवंति ?
गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आयअजसं पि उवजीवंति ।
[१०-२ प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य) आत्म- अयश से उत्पन्न होते हैं तो क्या आत्म- यश से जीवन-निर्वाह करते हैं या आत्म- अयश से जीवन निर्वाह करते हैं ।
[१०-२ उ.] गौतम ! आत्म-यश से भी और आत्म-अयश से भी जीवन निर्वाह करते हैं ।
[३] जति आयजसं उवजीवंति किं सलेस्सा, अलेस्सा ?
गोयमा ! सलेस्सा वि, अलेस्सा वि ।
[१०-३ प्र.] भगवन् ! यदि वे आत्मयश से जीवन-निर्वाह करते हैं तो सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी
होते हैं ?
[१० - ३] गौतम ! वे सलेश्यी भी होते हैं और अलेश्यी भी होते हैं ।
[४] जति अलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ?