Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पैंतीसवाँ शतक : उद्देशक ३-११]
[६९३ . एकेन्द्रियों में तेजोलेश्या तभी पाई जाती है जब उनमें देव उत्पन्न होते हैं।
अचरमसमय०-जिन एकेन्द्रिय जीवों का 'चरमसमय' नहीं है, वे 'अचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहे गए हैं।
प्रथम-प्रथमसमय०-जो एकेन्द्रिय जीव प्रथमसमयोत्पन्न हों और कृतयुग्म-कृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान हों, वे प्रथम-प्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं।
प्रथम-अप्रथमसमय०—प्रथमसमयोत्पन्न होते हुए भी जिन एकेन्द्रिय जीवों ने कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि का पूर्वभव में अनुभव किया हुआ हो, वे एकेन्द्रिय जीव (जिनका सप्तम उद्देशक में वर्णन है), प्रथमअप्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं । यहाँ उत्पत्ति के प्रथमसमय में एकेन्द्रियत्व में वर्तमान तथा पूर्वभव में कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिसंख्या का अनुभव किया हुआ होने से इन्हें प्रथम-अप्रथम-समयवर्ती कहा गया है।
प्रथम-चरम-समय०-कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के प्रथम-समयवर्ती और चरम समय अर्थात् मरणसमयवर्ती होने से इन्हें 'प्रथम-चरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, जिनका कथन आठवें उद्देशक में किया गया है।
प्रथम-अचरमसमय०-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान तथा अचरम अर्थात् एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों को 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, क्योंकि इनमें चरमत्व का निषेध है। यदि ऐसा न हो तो द्वितीय उद्देशक में कही हुई अवगाहना आदि की सदृशता इनमें घटित नहीं हो सकती। इसलिए नौवें उद्देशक में 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रिय' का कथन किया गया है।
चरम-चरमसमय०-जो कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम समय में वर्तमान हो तथा जो चरमसमय, अर्थात् मरणसमवर्ती हों, उन एकेन्द्रिय जीवों को 'चरम-चरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहते हैं, जिनका कथन दसवें उद्देशक में किया गया है। ___ चरम-अचरमसमय०-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम समय में वर्तमान और अचरमसमय अर्थात् एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती जो एकेन्द्रिय हैं, उन्हें 'चरम-अचरमसमयकृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहते हैं, जिनका कथन ग्यारहवें उद्देशक में किया गया है।
सारांश-प्रथम, तृतीय और पंचम इन तीन उद्देशकों का कथन समान है, क्योंकि इनमें अवगाहना आदि की भिन्नता का कथन नहीं है। शेष आठ उद्देशकों का कथन एक समान है. उनमें अवगाहना आदि दस बोलों की भिन्नता है। किन्तु चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवोत्पत्ति और तेजोलेश्या की संभावना न होने से उनका कथन नहीं करना चाहिए।' ॥ पैंतीसवें शतक में प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक के तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक संपूर्ण। ॥ प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त॥
*** १. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७. पृ. ३७४५-४६