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छत्तीसइमं सयं : बारस बेइंदियमहाजुम्मसयाइं
छत्तीसवाँ शतक : द्वादश द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक
पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक
सोलह द्वीन्द्रियमहायुग्मशतकों में उपपात आदि बत्तीस द्वारों की प्ररूपणा
वा,
१. कडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति० ? उववातो जहा वक्कंतीए । परिमाणं - सोलस संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, उववज्जंति । अवहारो जहा उप्पलुद्देसए (स० ११ उ० १ सु० ७ ) । ओगाहणा जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई । एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव; नवरं तिन्नि लेस्साओ; देवा न उववज्जंति; सम्मद्दिट्ठी वा मिच्छदिट्ठी वा नो सम्मामिच्छादिट्ठी; नाणी वा, मणयोगी, वइयोगी वा, कायजोगी वा ।
अन्नाणी वा; नो
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[१ प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म - कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[१ उ.] गौतम ! इनका उपपात (उत्पत्ति) प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना । परिमाण एक समय में सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इनका अपहार (ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पलोद्देशक (के सूत्र ७) के अनुसार जानना। इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग
और उत्कृष्ट बारह योजन की हैं। एकेन्द्रियमहायुग्मराशि के प्रथम उद्देशक के समान समझना । विशेष यह है कि इनमें तीन लेश्याएँ होती है। इनमें देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। ये ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। ये मनायोगी नहीं होते, वचनयोगी और काययोगी होते हैं।
२. ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मबेंदिया कालतो केवचिरं होंति ?
गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं ।
[२ प्र.] भगवन् ! वे कृतयुग्म - कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ?
[२ उ.] गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक होते हैं ।
३. ठिती जहन्त्रेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई । आहारो नियमं छद्दिसिं । तिन्नि समुग्धाया । सेसं तहेव जाव अनंतखुत्तो ।