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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२ उ.] गौतम ! जिस प्रकार (भ. शतक ११, उ. १, सू. ५) उत्पलोदेशक में उपपात कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी उपपात कहना चाहिए।
३. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजति ? गोयमा ! सोलस वा, संखेज्जा वा, असंखेजा वा, अणंता वा उववजंति। [३ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [३ उ.] गौतम ! वे एक समय में सोलह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। ४. ते णं भंते ! जीवा समए समए० पुच्छा।
गोयमा ! ते णं अणंता समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणंताहिं ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया।
[४ प्र.] भगवन् ! वे अनन्त जीव समय-समय में एक-एक अपहृत किये जाएँ तो कितने काल में अपहृत (रिक्त) होते हैं ?
[४ उ.] गौतम ! यदि वे अनन्त जीव समय-समय में अपहृत किये जाएँ और ऐसा करते हुए अनन्त अवसर्पिणी और उत्सपिर्णी बीत जाएँ तो भी वे अपहृत (रिक्त-खाली) नहीं हो पाते। (किन्तु ऐसा किसी ने किया नहीं।)
५. उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए ( स० ११ उ० १ सु०८)। [५] इनकी ऊँचाई उत्पलोद्देशक (श. ११, उ. १, सू. ८) के अनुसार जानना चाहिए। ६. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा, अबंधगा ? गोयमा ! बंधगा, नो अबंधगा। [६ प्र.] भगवन् ! वे एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं या अबन्धक हैं ? [६ उ.] गौतम ! वे जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं। ७. एवं सव्वेसिं आउयवजाणं, आउयस्स बंधगा वा, अबंधगा वा।
[७] इसी प्रकार वे जीव आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सभी कर्मों के बन्धक हैं। आयुष्यकर्म के वे बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं।
८. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स० पुच्छा। गोयमा ! वेदगा, नो अवेदगा। [८ प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीयकर्म के वेदक हैं या अवेदक हैं ? [८ उ.] गौतम ! वे ज्ञानावरणीयकर्म के वेदक हैं, अवेदक नहीं हैं। ९. एवं सव्वेसिं।