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सत्तमाइ बारसमसयपज्जतेसु उद्देसगा
सातवें से बारहवें शतक तक : १-११ उद्देशक
१. नीललेस्सभवसिद्धियएगिदिएसु सयं। [१] नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में (सातवाँ) शतक कहना चाहिए। २. एवं काउलेस्सभवसिद्धियगिदिएंहिं वि सयं।
[२] इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव-सम्बन्धी (आठवाँ) शतक कहना चाहिए। ___ ३. जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धीएहि वि चत्तारि सयाणि भाणियव्वाणि, नवरं चरिम-अचरिमवजा नवउद्देसगा भाणियव्वा। सेवं तं चेव।
एवं एयाइं बारस एगिंदियसेढिसयाई। सेवं भंते ! सेवं भंते. ! त्ति जाव विहरइ।
॥ चउतीसइमे सए एगिदियसेढिसयाई समत्ताई॥ ३४-१-१२॥
॥चउत्तीसइमे एगिंदियसेढिसयं समत्तं ॥ ३४॥ . [३] भवसिद्धिक जीव के चार शतकों के अनुसार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव के भी चार शतक कहने चाहिए। विशेष यह है कि चरम और अचरम को छोड़कर इनमें नौ उद्देशक ही कहने चाहिए। शेष पूर्ववत् जानना। इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रिय-श्रेणी शतक कहे हैं।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—इसमें ऋज्वायता आदि श्रेणियों की मुख्यता होने से इस शतक का नाम 'श्रेणीशतक' प्रसिद्ध हो गया।
॥ चौतीसवाँ शतक : सातवें से बारहवें अवान्तर शतक तक समाप्त॥ ॥ चौतीसवाँ एकेन्द्रियश्रेणी-शतक सम्पूर्ण॥
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