Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौतीसवां शतक : उद्देशक-१]
[६६५ एकेन्द्रियजीवों में स्थान-कर्मप्रकृतिबन्ध-वेदन, उपपात, समुद्घातादि की अपेक्षा प्ररूपणा
६९. कहिं णं भंते ! बायरपुढविकाइयाणं पजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठस पुढवीसु जहा ठाणपए जाव सुहमवणस्सइकाइया जे य पजत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावना पण्णत्ता समणाउओ!
[६९ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ?
[६९ उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियाँ हैं, इत्यादि सब कथन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार यावत् पर्याप्त और अपर्याप्त सभी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के हैं। इनमें कुछ भी विशेषता या भिन्नता नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण! वे (सूक्ष्म) सर्व लोक में व्याप्त हैं।
७०. अपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा—नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं। एवं चउक्कएणं भेएणं जहेव एगिंदियसएसु (स० ३३-१-१ सु० ७-११) जाव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं।
[७० प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ?
[७० उ.] गौतम ! आठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं, यथा—ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। इस प्रकार प्रत्येक के चार-चार भेद से एकेन्द्रिय शतक के (३३ श. १-१, ७-११ सू. के) अनुसार पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए।
७१. अपजत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ बंधति ?
गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्ठविहबंधगा वि जहा एगिंदियसएसु ( स० ३३-१-१ सु० १२१४) जाव पज्जत्तबायरवणस्सइकाइया।
[७१ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ?
[७१ उ.] गौतम ! वे सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं । यहाँ भी एकेन्द्रियशतक के अनुसार पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक का कथन करना चाहिए।
७२. अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेएंति ?
गोयमा ! चोद्दस कम्मपगडीओ वेएंति, तं जहा—नाणावरणिजं० जहा एगिदियसएसु (स० ३३-१-१ सु० १५) जाव पुरिसवेयज्ज।
[७२ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ?
[७२ उ.] गौतम ! वे चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथा—ज्ञानावरणीय आदि। शेष सब वर्णन एकेन्द्रियशतक के अनुसार पुरुषवेदवध्य कर्मप्रकृति पर्यन्त कहना चाहिए।
७३. एवं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं।