Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौतीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[६६७ समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्लट्ठितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते णं वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा ते णं वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति। से तेणटेणं गोयमा ! जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ।
॥ चोतीसइमं सयं : पढमे अवांतरसए, पढमो उद्देसओ समत्तो॥३४।१।१॥ [७६-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि कई तुल्यस्थिति वाले ................ यावत् भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ?
[७६-२ उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे हैं । यथा-(१) कई जीव समान आयु वाले और साथ उत्पन्न हुए होते हैं, (२) कई जीव समान आयु वाले और विषम उत्पन्न हुए होते हैं, (३) कई विषम आयु वाले और साथ उत्पन्न हुए होते हैं तथा (४) कितने ही जीव विषम आयु वाले और विषम उत्पन्न हुए होते हैं। इनमें से जो समान आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले तथा तुल्य एवं विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो जीव विषम आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो विषम आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले, विमात्राविशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। इस कारण से यह कहा गया है कि यावत् विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं।
"हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन–स्वस्थान, अविशेष और नानात्व—बादर पृथ्वीकायादि जीव जिस स्थान पर रहता है, वह उसका 'स्वस्थान' कहलाता है। जहाँ पर्याप्तक-अपर्याप्तक के भेद की विवक्षा न हो, वह अविशेष कहलाता है। जिनमें परस्पर नानात्व-अन्तर न हो, उन्हें अनानात्व कहते हैं।
वैक्रियसमुद्घात-एकेन्द्रिय में जो वैक्रियसमुद्घात कहा है, वह वायुकाय की अपेक्षा से है।
स्थिति और उत्पत्ति की भंगचतुष्टयी—स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रिय के ४ भंग कहे हैं और इन्हीं ४ भंगों की अपेक्षा चार प्रकार का कर्मबन्ध कहा है।' ॥चौतीसवां शतक : प्रथम अवान्तरशतक का प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९६१
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३७११