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चौतीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[६५१ सेवं तं चेव।१ = २११॥
[२१ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ।
[२१ उ.] गौतम ! (इसका उपपात) पूर्ववत् कहना चाहिए ॥ +१=२११ ॥ २२. एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि उ वाएयव्यो। १-२१२। [२२] इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उपपात का भी कथन करना चाहिए।
॥+१=२१२॥ २३. वाउकाइयत्ताए य, वणस्सइकाइयत्ताए य जहा पुढविकाइएसु तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। ८२२०।
[२३] जिस प्रकार (चार प्रकार के) पृथ्वीकायिक जीवों के उपपात के विषय में कहा, उसी प्रकार चार भेदों से, वायुकायिक रूप से तथा वनस्पतिकायिक रूप से उपपात का कथन करना चाहिए ॥ +८=२२० ॥
२४. एवं पजत्तबायरतेउकाइओ वि समयखेत्ते समोहणावेत्ता एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववातेयव्वो जहेव अपजत्तओ उववातिओ। २०। ___ [२४] इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक का भी समय (मनुष्य-) क्षेत्र में समुद्घात करके इन्हीं (पूर्वोक्त) वीस स्थानों में उपपात का कथन करना चाहिए ॥२०॥
२५. एवं सव्वत्थ वि बायरतेउकाइया अपजत्तगा य समयखेत्ते उववातेयव्वा, समोहणावेयव्वा वि-२४०।
[२५] जिस प्रकार अपर्याप्त का उपपात कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक के मनुष्यक्षेत्र में समुद्घात और उपपात का कथन करना चाहिए। -२४०॥
२६. वाउकाइया, वणस्सइकाइया य जहा पुढविकाइया तहेव चउक्कएणं भेएणं उववातेयव्वा जाव।
पज्जत्तबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणेत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए० पच्चथिमिल्ले चरिमंते पजत्तबायरवणस्सइ काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसम०?
सेसं तहेव जाव से तेणटेणं० । ८०८०-४००।
[२६] पृथ्वीकायिक-उपपात के समान चार-चार भेद से वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का उपपात कहना चाहिए; यावत्
[प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वी-चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में बादर वनस्पतिकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हो तो, हे