Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
१४. एवं पज्जत्तबायरपुढविकाइओ वि । ८० ।
[१४] इसी प्रकार पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के उपपात का कथन जानना चाहिए।॥ = ८० ॥
१५. एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए एयाए चेव वत्तव्वयाए एएस चेव वीसाए ठाणेसु उववातेयव्वो । १६० ।
[१५] इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के चार गमकों द्वारा पूर्व - चरमान्त में मरणसमुद्घातपूर्वक मरकर इन्हीं पूर्वोक्त वीस स्थानों में पूर्ववत् वक्तव्यता से उपपात का कथन करना चाहिए।॥ = १६० ॥
१६. सुहुमतेउकाइओ वि अपज्जत्तओ पज्जत्तओ य एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववातेयव्वो ।
॥ ४० = २०० ॥
[१६] अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों का भी इन्हीं वीस स्थानों में पूर्वोक्तरूप से उपपात कहना चाहिए ॥ =+४०=२०० ॥
१७. अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ?
सेसं तहेव जाव से तेणट्टेणं । १ = २०१ ।
[१७ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ?
-
'तीन समय की विग्रहगति
[१७ उ.] गौतम ! पूर्ववत् समग्र वक्तव्यता इस कारण से वह से उत्पन्न होता है, यहाँ तक कहनी चाहिए ॥ + १ = २०१ ॥
=
२०४ ॥
१८. एवं पुढविकाइएसु चउव्विहेसु वि उववातेयव्वो । ३ [१८] इसी प्रकार चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में भी पूर्ववत् उपपात कहना चाहिए।
॥ + ३ = २०४ ॥
१९. एवं आउकाइएसु चउव्विहेसु वि । ४ = २०८ ॥
[१९] चार प्रकार के अप्कायिकों में भी इसी प्रकार उपपात कहना चाहिए। ॥ + ४ = २०८ ॥ २०. तेउकाइएसु सुहुमेसु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव उववातेयव्वो । २ = २१० । [२०] सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के पर्याप्तक और अपर्याप्तक में भी इसी प्रकार उपपात कहना चाहिए।
॥ २०८+२=२१० ॥
२१. अपज्जत्तबादरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहइए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कतिसम० ?