Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौतीसवाँ शतक : उद्देशक - १]
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४. एकतःखा—'ख' आकाश को कहते हैं । इस श्रेणी के एक ओर त्रसनाडी के बाहर का आकाश आया हुआ है, इसलिए इसे 'एकत: खा श्रेणी' कहते हैं। आशय यह है कि जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल त्रसनाडी के बायें पक्ष से त्रसनाडी में प्रवेश करे और फिर त्रसनाडी से जाकर उसके बायीं ओर वाले भाग में उत्पन्न हो, उसे ‘एकत: खा श्रेणी' कहते हैं । इस श्रेणी में एक, दो, तीन या चार समय की वक्रगति होने पर भी क्षेत्र की अपेक्षा उसे पृथक् कहा है ।
५. उभयतः खा—त्रसनाडी से बाहर में बायें पक्ष में प्रवेश करके त्रसनाडी से जाते हुए जिस श्रेणी से दाहिने पक्ष में उत्पन्न होते हैं, उसे 'उभयतःखा (दोनों ओर आकाश वाली) श्रेणी' कहते हैं ।
६. चक्रवाल — जिस श्रेणी के माध्यम से परमाणु आदि गोल चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'चक्रवाल' कहते हैं ।
७. अर्द्धचक्रवाल—जिस श्रेणी से आधा चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'अर्द्धचक्रवाल श्रेणी' कहते हैं ।
बादर तेजस्कायिक की उत्पति — बादर तेजस्काय मनुष्यक्षेत्र में ही सम्भव है, उसके बाहर उसकी उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए उसके प्रश्नोत्तरों में 'मनुष्यक्षेत्र' ( समयक्षेत्र) कहा है
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रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के सोलह सौ गमक- - पृथ्वीकायिक आदि प्रत्येक एकेन्द्रिय के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार-चार भेद होने से ५x४ = २० भेद होते हैं। इनमें प्रत्येक जीव-स्थान में वीस-वीस गमक होते हैं । इस प्रकार पूर्व दिशा के चरमान्त की अपेक्षा २०x२० - ४०० गम होते हैं। इस दृष्टि से चारों दिशाओं के चरमान्त की अपेक्षा रत्नप्रभापृथ्वी के १६०० गम हुए। इसी प्रकार प्रत्येक नरकपृथ्वी के सोलह-सौ, सोलह-सौ गम होते हैं ।
शर्कराप्रभा-सम्बन्धी विग्रहगति —— शर्कराप्रभा के पूर्वीय- चरमान्त से मनुष्यक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव की समश्रेणी नहीं होती। इसलिए उसमें एक समय की विग्रहगति नहीं होती है, अपितु दो या तीन समय की होती हैं।
बादर तेजस्काय के दो भेद क्यों ? - रत्नप्रभा के पश्चिम- चरमान्त में बादर तेजस्काय न होने से सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो भेद ही कहे हैं। बादर तेजस्कायिक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा से कहे हैं।
३८. [ १ ] अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९५६ - ९५७
(ख) भगवती. (हिन्दी - विवेचन) भा. ७, पृ. ३६८९-९० (ग) 'अनुश्रेणी गति: ' - तत्त्वार्थ सूत्र अ. २