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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[९९ उ.] गौतम! वह सकषायी होता है, अकषायी नहीं; इत्यादि (उ. ६, सू. १२९ में कथित ) कषायकुशील के समान जानना चाहिए।
१००. एवं छेदोवट्ठावणिए वि ।
[१००] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय भी समझना ।
१०१. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए ( उ० ६ सू० १२४)।
[१०१] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथेन (उ. ६, सू. १२४ में उक्त) पुलाक के समान है।
१०२. सुहुमसंपरागसंजए० पुच्छा ।
गोयमा ! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा ।
[१०२ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत सकषायी होता है अथवा अकषायी होता है ?
[१०२ उ.] गौतम ! वह सकषायी होता है, किन्तु अकषायी नहीं होता ।
१०३. जदि सकसायी होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ?
गोमा ! एगंसि संजलणे लोभे होज्जा ।
[१०३ प्र.] भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है तो उसमें कितने कषाय होते हैं ?
[१०३ उ.] गौतम ! उसमें एकमात्र संज्वलनलोभ होता है ।
१०४. अहक्खायसंजए जहा नियंठे ( उ० ६ सु० १३० ) । [ दारं १८ ]
[१०४] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. ६, सू. १३० में उक्त निर्ग्रन्थ के समान है । [ अठारहवां द्वार]
विवेचन — निष्कर्ष — यथाख्यातसंयत के सिवाय सभी सकषायी होते हैं। सूक्ष्मससम्परायसंयत सकषायी तो होता है किन्तु उसमें एकमात्र संज्वलन लोभ होता है । यथाख्यातसंयत अकषायी होता है। उनमें कई उपशान्तकषाय होते हैं; कई क्षीणकषाय होते हैं ।
उन्नीसवाँ लेश्याद्वार : पंचविध संयतों में लेश्याप्ररूपण
१०५. सामाइयसंजए णं भंते! किं सलेस्से होज्जा, अलेस्से होज्जा ? गोयमा ! सलेस्से होज्जा, जहा कसायकुसीले ( उ० ६ सु० १३७ )।
[१०५ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत सलेश्य होता है अथवा अलेश्य होता है ?
[१०५ उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है, इत्यादि वर्णन (उ. ६, सू. १३७ में कथित ) कषायकुशील के
समान जानना ।
१०६. एवं छेदोवट्ठावणिए वि ।
[१०६] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में कहना चाहिए।
वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि. ) पृ. १०५१