________________
[६२३ बीइयाइ-अट्ठावीसइम-पजंता उद्देसगा
द्वितीय से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-कृष्णलेश्यी नैरयिकों की उद्वर्तना-सम्बन्धी प्ररूपणा
१. कण्हलेस्सखुड्डाकडजुम्मनेरइया ?
एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए ( स० ३१) अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निवरसेसा, नवरं 'उव्वटंति' त्ति अभिलाओ भाणियव्वो। सेसं तं चेव।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। ॥ बत्तीसइमे सए : बीइयाइ-अट्ठावीसइम-पजंता उद्देसगा समत्ता ॥ ३२-२-२८॥
॥बत्तीसइमं उव्वट्टणासयं समत्तं ॥ ३२॥ [१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म-राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से निकल कर (उद्वर्तित होकर) तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ?
[१ उ.] इसी प्रकार उपपातशतक के अट्ठाईस उद्देशकों के समान उद्वर्त्तनाशतक के भी अट्ठाईस उद्देशक जानना चाहिए। विशेष यह है कि 'उत्पन्न होते हैं' के स्थान पर 'उद्वर्तित होते हैं' कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-उत्पत्ति के समान उद्वर्तना के अट्ठाईस उद्देशक-इकतीसवें शतक में नारकों की उत्पत्ति की प्ररूपणा की थी, उसी प्रकार यहाँ उनकी उद्वर्तना अट्ठाईस उद्देशकों में क्रमशः कहनी चाहिए।'
प्रथम उद्देशक में कहा गया है—'उव्वट्टणा जहा वक्कंतीए।' प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार नैरयिकों की उद्वर्त्तना कहनी चाहिए। वहाँ संक्षेप में कहा गया है—'नरगाओ उव्वट्टा गन्भे पज्जत्त-संखजीवीसु' अर्थात् नरक से निकल कर जीव पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं ? ॥ बत्तीसवां शतक : दूसरे से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक सम्पूर्ण॥
॥ बत्तीसवाँ : उद्वर्त्तनाशतक समाप्त॥ १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. ३, पृ. १११३
** २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९५१
(ख) प्रज्ञापनासूत्र (पण्णवणासुत्तं) भा. १. सू.६६६-६७. पृ. १७८-७९ (महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित।)