Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पढमे एगिंदियसए : तइओ उद्देसओ
प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक
परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें कर्मप्रकृतियाँ, उनके बन्ध और वेदन
१. कतिविधा णं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोपवन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया० । एवं चउक्कओ भेदो जहा ओहिउद्देसए ।
[१ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ?
[१ उ.] गौतम ! परम्परोपपत्रक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा— पृथ्वीकायिक इत्यादि और औधिक उद्देशक के अनुसार इनके चार-चार भेद कहने चाहिए ।
.२. परंपरोववन्नगअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ। एवं एतेणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव चोद्दस वेदेंति ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० ।
॥ तेतीसइमे सए पढमे एगिंदियसए : ततिओ उद्देसओ समत्तो ॥ ३३-१-३॥
[२ प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नकअपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही गई
हैं ?
[२ उ.] गौतम ! इस अभिलाप से औधिक (प्रथम) उद्देशक के अनुसार यावत् चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं; (यहाँ तक) समग्र पाठ पूर्ववत् ( इसी प्रकार ) कहना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन — प्रथम उद्देशक का अतिदेश—इस परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय उद्देशक में समग्र वक्तव्यता प्रथम (आँघिक) उद्देशक के अनुसार प्रतिपादित की गई है। तत्काल उत्पन्न हुए जीव को 'अनन्तरोपपन्नक' और जिसको उत्पन्न हुए दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, उसे परम्परोपपन्नक कहते हैं। परम्परोपपन्नक में पृथ्वीकायिक आदि प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार चार-चार भेद होते हैं ।' ॥ तेतीसवाँ शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥
१. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. ३ ( मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) १११६-१११७ (ख) भगवती. (हिन्दी - विवेचन) भा. ७, पृ. ३६६५
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