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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[९१ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत, सामायिकसंयत के परस्थानसन्निकर्ष (विजीतीय चारित्रपर्यवों) की अपेक्षा क्या हीन, तुल्य अथवा अधिक होता है ?
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[९१ उ.] गौतम! वह हीन होता है, किन्तु तुल्य या अधिक नहीं होता। वह अनन्तगुण हीन होता है । ९२. अहक्खाए हेट्ठिल्लाणं चउण्ह वि नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए— अनंतगुणमब्भहिए । सट्टा नो हीणे, तुल्ले, नो अब्भहिए ।
[९२] यथाख्यातसंयत नीचे के चार संयतों की अपेक्षा हीन भी नहीं तथा तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक होता है। वह अनन्तगुण अधिक होता है । स्वस्थानसन्निकर्ष ( सजातीय) चारित्रपर्यवों की अपेक्षा वह हीन भी नहीं और अधिक भी नहीं, किन्तु तुल्य होता है ।
९३. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय- परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय- अहक्खायसजयाणं जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! साम्णइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोन्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा, परिहारविसुद्धियसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा, तस्स चेवउक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । सामाइयसंजयस्स छेदोवद्वावणियसंजयस्स य, एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा। सुहुमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपज्जवा गुणा तस्स व उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । अहक्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । [ दारं १५]
[९३ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनीयसंयत, परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत, उनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रपर्यवों में से किसके चारित्रपर्यव किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
[९३ उ.] गौतम! सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत, इन दोनों के जघन्य चारित्रपर्यव परस्पर तुल्य और सबसे अल्प हैं। उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं। उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं। उनसे सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं और परस्पर तुल्य हैं। उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं, उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं। उनसे यथाख्यातसंयत के अजघन्य - अनुत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं । [ पन्द्रहवाँ द्वार ]
विवेचना — चारित्रपर्यवों की हीनाधिक-तुल्यता का कारण — सामायिकसंयत के संयमस्थान असंख्यात होते हैं। उनमें से जब एक संयत हीन शुद्धि वाला होता है और दूसरा संयत कुछ अधिक शुद्धि वाला होता है, तब उन दोनों सामायिकसंयतों में से एक ( चारित्रपर्यवों से ) हीन और दूसरा ( चारित्रपर्यवों से) अधिक कहलाता है । इस हीनाधिकता में षट्स्थान - पतितता होती है। जब दोनों के संयमस्थान समान होते हैं। तब तुल्यता होती है ।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१३