Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-७]
[५०३ [२३१ प्र.] (भगवन् !) कायविनय कितने प्रकार का है ? [२३१ उ.] (गौतम!) कायविनय दो प्रकार का है। यथा—प्रशस्तकायविनय और अप्रशस्तकायविनय । २३२. से किं तं पसत्थकायविणए ?
पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा–आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं निसीयणं, आउत्तं तुयट्टणं, आउत्तं उल्लघणं आउत्तं पल्लंघणं आउत्तं सव्विदियजोगजुंजणया।से त्तं पसत्थकायविणए।
[२३२ प्र.] (भगवन्!) प्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ?
[२३२ उ.] (गौतम!) प्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है । यथा-आयुक्त गमन (यतनापूर्वक गमन), आयुक्त स्थान (यतनापूर्वक ठहरना या खड़े रहना), आयुक्त निषीदन (सावधानीपूर्वक करवट बदलना, लेटना या सोना), आयुक्त उल्लंघन (सावधानीपूर्वक लाँघना), आयुक्त प्रलंघन (सावधानी से बार-बार या जोर से लाँघना) और आयुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुंजनता (सभी इन्द्रियों और योगों की सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना)। यह हुआ प्रशस्तकायविनय का वर्णन।
२३३. से किं तं अप्पसत्थकायविणए ?
अप्पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते,तं जहा—अणाउत्तं गमणं,जाव अणाउत्तं सव्विदियजोगजुंजणया। से तं अप्पसत्थकायविणए। से तं कायविणए।
[२३३ प्र.] (भगवन् !) अप्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ? .. [२३३ उ.] (गौतम!) अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है। यथा—अनायुक्त गमन यावत् अनायुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुंजनता (असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति करना)। यह हुआ अप्रशस्तकायविनय का वर्णन। साथ ही कायविनय का वर्णन पूर्ण हुआ।
२३४. से किं तं लोगोवयारविणए ?
लोयोवयारविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा—अब्भासवत्तियं, परछंदाणुवत्तियं, कजहेतुं, कयपडिकतया, अत्तगवेसणया, देसकालण्णया, सव्वत्थेसु अपडिलोमया। से तं लोगोवयारविणए। से त्तं विणए।
[२३४ प्र.] (भगवन्!) लोकोपचारविनय के कितने प्रकार हैं ?
[२३४ उ.](गौतम!) लोकोपचारविनय सात प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) अभ्यासवृत्तिता (गुरु आदि के सानिध्य में रहना, अथवा अभ्यास (अध्ययन) में चित्तवृत्ति को एकाग्र करना), (२) परच्छन्दानुवर्तिता (गुरु आदि बड़ों के अधीनस्थ (आज्ञापरायण) होकर कार्य करना), (३) कार्य-हेतु (गुरु आदि द्वारा किये हुए ज्ञानदानादि कार्य के लिए उन्हें विशेष मानना तथा उन्हें आहारादि लाकर देना), (४) कृत-प्रतिक्रिया (अपने पर किये हुए उपकार के बदले प्रत्युपकार करना, बदला चुकाना, अथवा आहारादि द्वारा गुरु की सेवा-शुश्रूषा करने से वे प्रसन्न होंगे और उससे वे मुझे ज्ञान सिखायेंगे, ऐसा समझ कर उनकी