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तीसवाँ शतक : उद्देशक १]
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४७. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा।
[४७] शुक्लपाक्षिक जीव सलेश्यी जीवों के समान आयुष्यबंध करते हैं ।
४८. सम्मद्दिट्ठी णं भंते ! जीवा किरियावाई किं नेरइयाउयं० पुच्छा ।
गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति ।
[४८ प्र.] भगवन् ! क्या सम्यग्दृष्टि क्रियावादी जीव नैरयिकायुष्यबन्ध करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । [४८ उ.] गौतम ! वे नैरयिकायुष्य एवं तिर्यञ्चायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयुष्य बांधते हैं।
४९. मिच्छद्दिट्ठी जहा कण्हपक्खिया ।
[४९] मिथ्यादृष्टि क्रियावादी जीव का आयुष्यबन्ध कृष्णपाक्षिक के समान है।
५०. सम्मामिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! जीवा अन्नाणियवादी किं नेरइवाउयं० ?
जहा अलेस्सा।
[५० प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी जीव नैरयिकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[५० उ. ] गौतम ! अलेश्यी जीव के समान जानना ।
५१. एवं वेणइयवादी वि ।
[५१] इसी प्रकार विनयवादी जीवों का आयुष्यबन्ध जानना चाहिए।
५. २. णाणी, आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य ओहिनाणी य जहा सम्मद्दिट्ठी ।
[५२] ज्ञानी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी के आयुष्य का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है।
५३. [ १ ] मणपज्जवनाणी णं भंते !० पुच्छा ।
गोयमा ! नो नरतियाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख०, नो मणुस्स०, देवाउयं पकरेंति ।
[५३-१ प्र.] भगवन् ! मनः पर्यवज्ञानी नैरयिकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[५३-१ उ.] गौतम ! वे नैरयिक, तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य नहीं बांधते, किन्तु देव का आयुष्य बांधते हैं।
[ २ ] जदि देवाउयं पकरेंति किं भवणवासि० पुच्छा ।
गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतर०, नो जोतिसिय०, वेमाणियदेवाउयं० । [५३-२ प्र.] भगवन् ! यदि वे देवायुष्य बांधते हैं, तो क्या भवनवासी देवायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि