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तीसवां शतक : उद्देशक १]
[५९९ एवं अज्ञानवादी) में भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना।
१२३. पंचेदियितिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं जं अत्थि।
[१२३] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव नैरयिकों के सदृश जानना, किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, (वे सब कहने चाहिए।)
१२४. मणुस्सा जहा ओहिया जीवा। [१२४] मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान है। १२५. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥ तीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो॥३०-१॥ [१२५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का निरूपण असुरकुमारों के समान जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन भवसिद्धिक एवं अभवसिद्धिक का निरूपण—प्रस्तुत ३२ सूत्रों (९४ से १२५ तक) में क्रियावादी आदि चारों तथा लेश्या आदि ११ स्थानों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक की चर्चा की गई है। सभी सूत्र स्पष्ट हैं। भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक का अर्थ भव्य और अभव्य है। ॥ तीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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