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उनतीसवां शतक : उद्देशक-२]
[५७५ [२ प्र.] भगवन् ! क्या लेश्या वाले (सलेश्यी) अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न।
[२ उ.] गौतम ! इस विषय में सारा कथन पूर्ववत् समझना। ३. एवं जाव अणागारोवयुत्ता। [३] इसी प्रकार की वक्तव्यता अनाकारोपयुक्त तक समझना चाहिए। ४. एवं असुरकुमारा वि, एवं जाव वेमाणिया। [४] असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। ५. नवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणित्तव्वं। [५] विशेष यह है कि जिसमें जो बोल पाया जाता हो, वही कहना चाहिए। ६. एवं नाणावरणिजेण वि दंडओ। [६] इसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के सम्बन्ध में भी दण्डक कहना चाहिए। ७. एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं। .. सेवं भंते ! सेवं भंतं ! ति जाव विहरइ। .
॥एगूणतीसइमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥२९-२॥ [७] और इसी प्रकार अन्तरायकर्म तक समग्र पाठ कहना चाहिए। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे।
विवेचन–अनन्तरोपपन्नक, समोपपन्नक, समायुष्क और विषमोपपन्नक के विशेषार्थ—आयुष्य के उदय के प्रथम समयवर्ती (तुरंत उत्पन्न हुए) जीव 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं। उनके आयुष्य का उदय समकाल में ही होता है अन्यथा उनका अनन्तरोपपन्नक्त्व ही नहीं रह सकता। मरण के पश्चात् परभव की उत्पत्ति की अपेक्षा समोपपन्नक' कहलाते हैं तथा मरणकाल में भूतपूर्व गति की अपेक्षा से भी वे जीव अनन्तरोपपन्नक होते हैं। इस प्रकार यह प्रथम भंग बनता है।
दूसरे भंगवर्ती जीवों का समकाल में आयु का उदय होने से वे समायुष्क कहलाते हैं तथा मरणसमय की विषमता (विभिन्न काल में मृत्यु) के कारण वे 'विषमोपपन्नक' कहलाते हैं । इस प्रकार यह दूसरा भंग बनता है। ये अनन्तरोपपन्नक हैं, इसलिए इनमें विषमायु-सम्बन्धी तृतीय और चतुर्थ भंग घटित नहीं होता।
॥ उनतीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥ १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९४१
*** (ख) भरावती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३६०० ।