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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
१७. केवलनाणीणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं। [१७] केवलज्ञानी जीवों में अन्तिम (चतुर्थ) एक भंग अलेश्य जीवों के समान पाया जाता है।
विवेचन–ज्ञानी जीवों में चतुर्भंगी प्ररूपणा—सामान्य ज्ञानी और आभिनिबोधिकज्ञानी से लेकर मनःपर्यवज्ञानी तक छद्मस्थ होने से मोहकर्मबन्ध होने के कारण पहले के दो भंग घटित होते हैं, शेष दो भंग भी शुक्लपाक्षिक जीवों के समान इनमें भी घटित होते हैं।
केवलज्ञानी जीवों के वर्तमान में तथा भविष्य में पापकर्म का बन्ध होने से उनमें एकमात्र चतुर्थ भंग ही होता है। छठा स्थान : अज्ञानी जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण
१८. अन्नाणीणं पढम-बितिया। [१८] अज्ञानी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। १९. एवं मतिअन्नाणीणं, सयअन्नाणीणं, विभंगनाणीण वि।
[१९] इसी प्रकार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी में भी पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए।
विवेचन–अज्ञानी जीवों में दो भंग ही क्यों? –अज्ञानी जीवों तथा मति-अज्ञानी आदि तीनों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग ही पाए जाते हैं, क्योंकि उनके मोहनीयकर्म का बन्ध होने से अन्तिम दो भंग घटित नहीं होते। सप्तम स्थान : आहारादि संज्ञी की अपेक्षा पापकर्मबन्ध प्ररूपणा
२०. आहारसन्नोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताणं पढम-बितिया। [२०] आहार-संज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह-संज्ञोपयुक्त जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। २१. नोसण्णोवउत्ताणं चत्तारि। [२१] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं।
विवेचन—आहारादि संज्ञा वाले जीवों में चतुर्भंगी-प्ररूपणा आहारादि चारों संज्ञाओं वाले जीवों में क्षपकत्व और उपशमकत्व नहीं होने से पहला और दूसरा दो भंग ही होते हैं। नोसंज्ञा अर्थात् आहारादि की आसक्ति से रहित जीवों के मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम सम्भव होने से उनमें चारों ही भंग पाये जाते हैं।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३० २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३०