Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
३८. एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा।
नवरं तेउलेस्सा, इत्थिवेयग-पुरिसवेयगा य अब्भहिया, नपुंसगवेयगा न भण्णंति। सेसं तं चेव। सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा।
[३८] असुरकुमारों के विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इनमें तेजोलेश्या वाले स्त्रीवेदक और पुरुषवेदक अधिक कहने चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इन सबमें पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए।
३९.,एवं जाव थणियकुमारस्स। [३९] इसी प्रकार स्तनितकुमार तक कहना चाहिए।
४०. एवं पुढविकाइयस्स वि, आउकाइयस्स वि जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि, सव्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा। नवंर जस्स जा लेस्सा, दिट्ठी, नाणं, अन्नाणं, वेदो, जोगो य, जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । सेसं तहेव।
[४०] इसी प्रकार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक से पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक भी सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि जहाँ जिसमें जो लेश्या, जो दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद और योग हो, उसमें वही कहना चाहिए। शेष 'सब पूर्ववत् है।
४१. मणूसस्स जच्चेव जीवपए वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा। [४१] मनुष्य के विषय में जीवपद में जो वक्तव्यता है, वही समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। ४२. वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। [४२] वाणव्यन्तर का कथन असुरकुमार के कथन के समान है। ४३. जोतिसिय-वेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियव्वाओ, सेसं तहेव भाणियव्वं।
[४३] ज्योतिष्क और वैमानिक के विषय में भी कथन इसी प्रकार है, किन्तु जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। शेष सब पूर्ववत् समझना।
विवेचन—चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में त्रैकालिक पापकर्मबन्ध नैरयिक जीव में उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी नहीं होती, इसलिए उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, केवल पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है। सलेश्य इत्यादि विशेषणयुक्त नैरयिकादि में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। असुरकुमारादि में भी इसी प्रकार प्रारम्भ के दो भंग पाये जाते हैं।
औधिक जीव और सलेश्य आदि विशेषणयुक्त जीव के लिए जो चतुर्भंगी आदि वक्तव्यता कही है, मनुष्य के लिए भी वह उसी प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि जीव और मनुष्य दोनों समानधर्मा हैं।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३१