Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१-२ उ.] गौतम ! जीव चार प्रकार के कहे हैं। यथा (१) कई जीव समान आयु वाले हैं, और समान (एक साथ) उत्पन्न होते हैं, (२) कई जीव समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम (भिन्न-भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं, (३) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और सम (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और (४) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न-भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं। इनमें से जो (१) समान आयु वाले और समान (एक साथ) उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन (भोग) एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं, (२) जो समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं किन्तु भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं, (३) जो विषम आयु वाले हैं
और समान समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का भोग (वेदन) भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ अन्त करते हैं और (४) जो विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन भी भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और अन्त भी विभिन्न समय में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार का कथन किया है।
२. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ?
एवं चेव। __[२ प्र.] भगवन् ! सलेश्यी (लेश्या वाले) जीव पापकर्म का वेदन एक काल में (एक साथ) करते हैं ? इत्यादि (पूर्वोक्त प्रकार से) प्रश्न ।
[२ उ.] गौतम ! इसका समाधान पूर्ववत् समझना। ३. एवं सव्वट्ठाणेसु वि जाव अणागारोवउत्ता, एते सव्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियव्वा।
[३] इसी प्रकार सभी स्थानों में अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जानना चाहिए। इन सभी पदों में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए।
४. नेरइया णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्ठविंसु, समायं निट्ठविंसु० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टविंसु०, एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्वं जाव अणागारोवउत्ता।
[४ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक पापकर्म भोगने का प्रारम्भ एक साथ (एक काल में) करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ करते हैं ?
[४ उ.] गौतम ! कई नैरयिक एक साथ पापकर्म भोगने का प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका अन्त करते हैं, इत्यादि सब (पूर्वोक्त चतुर्भंगी का) कथन सामान्य जीवों की वक्तव्यता के समान अनाकारोपयुक्त तक नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए।
५. एवं जाव वेमाणियाणं। जस्स जं अत्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियव्वं। [५] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक जिसमें जो बोल पाये जाते हों, उन्हें उसी क्रम से