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ततिओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक
परम्परोपपन्नक का पापकर्मादिबन्ध-सम्बन्धी परम्परोपपन्नक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध को लेकर ग्यारह स्थानों की निरूपणा
१. परम्परोववन्नए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए०, पढम-बितिया। [१ प्र.] भगवन् ! क्या परम्परोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि प्रश्न । [१ उ.] गौतम ! किसी ने बांधा था इत्यादि प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए।
२. एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएहि वि उद्देसओ भाणियव्वो नेरइयाइओ तहेव नवदंडगसंगहितो। अट्ठण्ह वि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मस्स वत्तव्वया सा तस्स अहीणमतिरित्ता नेयव्वा जाव वेमाणिया अणागारोवउत्ता। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः ।
॥छव्वीसइमे सए : ततिओ उद्देसओ समत्तो ॥२६-३॥ [२] जिस प्रकार प्रथम उद्देशक कहा, उसी प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिक के विषय में पापकर्मादि नौ दण्डक सहित यह उद्देशक भी कहना चाहिए। आठ कर्मप्रकृतियों में से जिसके लिए जिस कर्म की वक्तव्यता कही है, उसके लिए उस कर्म की वक्तव्यता अनाकारोपयुक्त वैमानिकों तक अन्यूनाधिकरूप से कहनी चाहिए।
"हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन–प्रथम उद्देशक का अतिदेश तथा विशेष—जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में जीव और नैरयिकादि के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यह तीसरा उद्देशक भी कहना चाहिए। विशेष इतना है कि प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव एवं नैरयिकादि मिला कर पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस (तृतीय) उद्देशक में नैरयिक.आदि चौवीस दण्डक ही कहने चाहिये। क्योंकि औधिक जीव के साथ अनन्तरोपनक, परम्परोपपत्रक आदि विशेषण नहीं लग सकते ।
. पापकर्म का यह पहला सामान्य दण्डक और आठ कर्मों के आठ दण्डक, यों नौ दण्डक प्रथम उद्देशक में कहे हैं, वे ही नौ दण्डक इस उद्देशक में कहने चाहिए।' ॥ छब्बीसवां शतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण॥
*** १. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) अ.७, पृ. ३५७०