Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छव्वीसवाँ शतक : उद्देशक-११]
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[१५] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान इन चार स्थानों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए।
१६. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततियो भंगो। सेसपएसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा।
[१६] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के सम्यग्मिथ्यात्व में तीसरा भंग पाया जाता है। शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिए।
१७. मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेयए अकसायिम्मि य ततियो भंगो, अलेस्स-केवलनाणअजोगी य न पुच्छिजंति, सेसपएसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा।
[१७] मनुष्यों के सम्यगमिथ्यात्व, अवेदक और अकषाय में तृतीय भंग ही कहना चाहिए। अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। शेष पदों में सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग होता है।
१८. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। [१८] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। १९. नाम गोयं अंतराइयं च जहेव नाणावरणिजं तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति।
॥छव्वीसइमे सए : एगारसमो उद्देसओ समत्तो॥ २६-११॥
॥छव्वीसइमं बंधिसयं समत्तं ॥ २६॥ [१९] नाम, गोत्र और अन्तराय, इन तीन कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के समान समग्ररूप से कहना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते है।
विवेचन स्पष्टीकरण-ज्ञानावरणीय कर्मबन्धक का दण्डक पापकर्मबन्ध के दण्डक के समान है, किन्तु पापकर्मदण्डक में सकषाय और लोभकषाय में प्रथम के तीन भंग कहे हैं, जबकि यहाँ प्रथम के दो भंग (पहला और दूसरा) ही कहने चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानावरणीयकर्म को बांधे बिना उसके पुनर्बन्धक नहीं होते और सकषायी जीव सदैव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक होते ही हैं। अचरम होने से इनमें चौथा भंग नहीं होता।
वेदनीयकर्म में सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग ही होता है। इसमें तीसरा और चौथा भंग घटित नहीं हो