Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छव्वीसवां शतक : उद्देशक-१]
[५४३ क्योंकि देवभव में मनुष्यायु का बन्ध अवश्य करेगा। उपशम अवस्था की अपेक्षा तीसरा भंग और क्षपकअवस्था की अपेक्षा चौथा भंग होता है, क्योंकि क्षपक और केवलज्ञानी न तो आयु बांधते हैं, और न ही बांधेगे, इसलिए इनमें एक ही (चौथा) भंग पाया जाता है।
नोसंज्ञोपयुक्त जीव में भी मनःपर्यवज्ञानी के समान तीन भंग घटित कर लेने चाहिए। अवेदक और अकषायी जीव में उपशम और क्षपक अवस्था की अपेक्षा तृतीय और चतुर्थ भंग पाया जाता है। मति आदि तीन अज्ञान वाले, आहारादि चार संज्ञोपयुक्त, सवेदक (स्त्री-पुरुषादि तीन वेदों से युक्त), सकषाय (क्रोधादि चार कषायों से युक्त), सयोगी (मन-वचन-काया के तीनों योगों सहित) तथा साकारोपयुक्त एवं अनाकारोपयुक्त इन सभी जीवों में चार-चार भंग पाये जाते हैं।
नैरयिक जीवों में चार भंग कहे हैं, क्योंकि नैरयिक जीव ने आयुष्य बांधा था, बन्धनकाल में वर्तमान में बांधता है और भवान्तर में बांधेगा, इस प्रकार प्रथम भंग घटित होता है। जो नैरयिक मोक्ष को प्राप्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से दूसरा भंग घटित होता है। बन्धनकाल के अभाव तथा भावी बन्धनकाल की अपेक्षा तृतीय भंग है। जिस नैरयिक ने परभव का (मनुष्यायुष्य) बांध लिया और जिसका आयुष्य बांधा है, वही उसका चरम भव है, उसकी अपेक्षा से चौथा भंग है। इस प्रकार सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए।
कृष्णलेश्यी नैरयिक में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है। प्रथम भंग तो प्रतीत ही है। कृष्णलेश्यी नैरयिक में दूसरा भंग नहीं होता, क्योंकि कृष्णलेश्यी नारक, तिर्यञ्च में अथवा अचरमशरीरी मनुष्य में उत्पन्न होता है। कृष्णलेश्या पांचवी नरकपृथ्वी आदि में होती है, वहाँ से निकला हुआ केवली या चरमशरीरी नहीं होता। इसलिए वहाँ से निकला हुआ नैरयिक अचरमशरीरी होने से फिर आयुष्य बांधेगा। कृष्णलेश्यी नैरयिक अबन्धकाल में आयुष्य नहीं बांधता, बन्धनकाल में आयुष्य बांधेगा, इस दृष्टि से उसमें तृतीय भंग घटित होता है। वह आयु का अबन्धक नहीं होता, इसलिए उसमें चौथा भंग घटित नहीं होता।
इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक नैरयिक के विषय में भी पहला और तीसरा भंग घटित कर लेना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकजीव आयु नहीं बांधता, इसलिए उसमें तीसरा और चौथा भंग होता है। कृष्णलेश्यी असुरकुमार में चारों भंग पाये जाते हैं, क्योंकि वहाँ से निकल कर मनुष्यगति में आकर वह सिद्ध हो सकता है। इस अपेक्षा से उसमें दूसरा और चौथा भंग घटित होता है।
पृथ्वीकायिक जीवों में सभी स्थानों में चार भंग पाये जाते हैं। किन्तु कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग ही होता है। तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक में एकमात्र तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि जो तेजोलेश्यी देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, वह अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्यी होता है तथा तेजोलेश्या का समय व्यतीत हो जाने के बाद आयुष्य बांधता है। अतः तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक ने पूर्वभव में आयुष्य बांधा था, वह तेजोलेश्या के समय आयुष्य बन्ध नहीं करता, किन्तु तेजोलेश्या का समय बीत जाने पर आयुष्य बांधेगा, इस दृष्टि से तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक में तीसरा भंग घटित होता है।