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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [७२] इसी प्रकार इस क्रम से नोसंज्ञोपयुक्त जीव में द्वितीय भंग के अतिरिक्त तीन भंग मनःपर्यज्ञानी के ' समान होते हैं।
७३. अवेयए अकसाई य ततिय-चउत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते। [७३] अवेदी और अकषायी में सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है। ७४. अजोगिम्मि चरिमो। [७४] अयोगी केवली जीव में एकमात्र चौथा (अन्तिम) भंग पाया जाता है। ७५. सेसेसु पएसु चत्तारि भंगा जाव अणागारोवउत्ते। [७५] शेष पदों में यावत् अनाकारोपयुक्त तक में चारों भंग पाये जाते हैं। ७६. नेरतिए णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधो० पुच्छा।
गोयमा ! अत्थेगतिए० चत्तारि भंगा। एवं सव्वत्थ वि नेरइयाणं चत्तारि भंगा, नवरं कण्हलेस्से कण्हपक्खिए य पढम-ततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय-चउत्था।
[७६ प्र. ] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था? इत्यादि चातुर्भंगिक प्रश्न।
[७६ उ.] गौतम ! किसी नैरयिक ने आयुष्यकर्म बांधा था इत्यादि चारों भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार सभी स्थानों में नैरयिक के चार भंग कहने चाहिए, किन्तु कृष्णलेश्यी एवं कृष्णपाक्षिक नैरयिक जीव में पहला तथा तीसरा भंग तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि के तृतीय और चतुर्थ भंग होता है।
७७. असुरकुमारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियव्वा। सेसं जहा नेरतियाणं। " [७७] असुरकुमार में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु कृष्णलेश्यी असुरकमार में पूर्वोक्त चारों भंग कहने चाहिए। शेष सभी नैरयिकों में समान कहना चाहिए।
७८. एवं जाव थणियकुमाराणं। [७८] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। ७९. पुढविकाइयाणं सव्वत्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा।
[७९] पृथ्वीकायिकों में सभी स्थानों में चारों भंग होते हैं। किन्तु कृष्णपाक्षिक पृथ्वीकायिक में पूर्वोक्त चार भंगों में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है।
८०. तेउलेस्से० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, बंधिस्सति।