Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-७]
[५१३ हो जाता है। यह शरीर कितना अशुचि से भरा है, जिस पर अभिमान करके मनुष्य नाना पापकर्म करता है, इत्यादि भावना करना अशुभानुप्रेक्षा है।
__ (४) अपायानुप्रेक्षा—जीव जिन कारणों से दुःखी होता है, उन अपायों का चिन्तन करना। जैसेवश में नहीं किए हुए क्रोध और मान तथा बुद्धिगत माया और लोभ संसार के मूल को सींचने और बढ़ाने वाले हैं। इन्हीं से जीव विविध प्रकार के दुःख भोगता है, इत्यादि आश्रवों से होने वाले अपायों का चिन्तन करना, 'अपायानुप्रेक्षा' है।
ध्यान के भेद तथा प्रशस्त-अप्रशस्त-विवेक-इस प्रकार चारों ध्यानों के कुल मिलाकर ४८ भेद होते हैं । आर्तध्यान के ८, रौद्रध्यान के ८, धर्मध्यान के १६ और शुक्ल ध्यान के १६, यों कुल मिलाकर ४८ भेद हुए।
चारों ध्यानों में धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त हैं, शुभ हैं, निर्जरा के कारण हैं तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं, अशुभ हैं, कर्मबन्ध और संसार की वृद्धि के कारण हैं, अत: त्याज्य हैं । तप के प्रकरण में दो अप्रशस्त ध्यानों का वर्णन करने का कारण यह है कि प्रशस्त ध्यानों का आसेवन करने से और अप्रशस्त ध्यानों को छोड़ने से तप होता है। इसलिए त्याज्य होते हुए भी वर्णन किया गया है। व्युत्सर्ग के भेद-प्रभेदों का निरूपण
२५०. से किं तं विओसग्गे ? विओसग्गे दुविधे पन्नत्ते, तं जहा—दव्वविओसग्गे य भावविओसग्गे य। [२५० प्र.] (भंते!) व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [२५० उ.] (गौतम!) व्युत्सर्ग दो प्रकार का है। यथा—द्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग। २५१. से किं तं दव्वविओसग्गे ?
दव्वविओसग्गे चउव्विधे पन्नत्ते, तं जहा—गणविओसग्गे सरीरविओसग्गे उवधिविओसग्गे भत्त-पाणविओसग्गे। से तं दव्वविओसग्गे।
[२५१ प्र.] (भगवन् !) द्रव्यव्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ?
[२५१ उ.] (गौतम!) द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा है। यथा—गणव्युत्सर्ग, शरीरव्युत्सर्ग, उपधिव्युत्सर्ग और भक्तपानव्युत्सर्ग। यह द्रव्यव्युत्सर्ग का वर्णन हुआ।
२५२. से किं तं भावविओसग्गे? भावविओसग्गे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा—कसायविओसग्गे संसारविओसग्गे कम्मविओसग्गे।
[२५२ प्र.] (भगवन् !) भावव्युत्सर्ग कितने प्रकार का कहा है ? १. (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३५२० से ३५३१
(ग) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिकाटीका). भा. १६. पृ. ४७५ से ४९०