Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त निर्विचार एवं स्थिर रहता है । यह त्याग किसी एक ही योग में होता है।
३. सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती–मोक्षगमन से पूर्व केवली भगवान् मन और वचन इन दो योगों का तथा अर्द्धकाययोग का भी निरोध करते हैं। उस समय केवली के उच्छ्वास आदि कायिकी सूक्ष्मक्रिया ही रहती है। विशेष चढ़ते परिणाम रहने के कारण केवलज्ञानी भगवान् उससे पीछे नहीं हटते। यह तृतीय 'सूक्ष्मक्रियाअनिवर्ती' शुक्लध्यान है । यह केवल काययोग में होता है।
४. समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती-शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर देते हैं । योगों के निरोध से सभी क्रियाओं का अभाव हो जाता है । इस ध्यान में लेशमात्र भी क्रिया शेष नहीं रहती, इसलिए इसे समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं । यह ध्यान अयोगी अवस्था में ही होता
शुक्लध्यान के चार लक्षणों का स्वरूप इस प्रकार है-प्रथम लक्षण क्षान्ति है अर्थात् क्रोध न करना और उदय में आए हुए क्रोध को विफल कर देना, इस प्रकार क्रोध का त्याग करना क्षमा (क्षान्ति) है। दूसरा लक्षण मुक्ति-लोभ का त्याग है। उदय में आए हुए क्रोध को विफल कर देना मुक्ति है। तीसरा लक्षण है—आर्जव (सरलता) । माया को उदय में नहीं आने देना एवं उदय में आई हुई माया को विफल कर देना आर्जव है। चौथा लक्षण है—मार्दव (कोमलता)। मान न करना, उदय में आए हुए मान को निष्फल कर देना, मान का त्याग करना मार्दव हैं।
शुक्लध्यान के चार अवलम्बन (१) अव्यय-शुक्लध्यानी परिषहों और उपसर्गों से डर कर ध्यान से विचलित नहीं होता। (२) असम्मोह-शुक्लध्यानी की देवादिकृत माया में अथवा अत्यन्त गहन सूक्ष्मविषयों में सम्मोह नहीं होता। (३) विवेक-शुक्लध्यानी शरीर से आत्मा को भिन्न तथा शरीरसम्बन्धित सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न समझता है।(४) व्युत्सर्ग—वह अनासक्तभाव से देह और सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न समझता है।
शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ—(१) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा-अनन्त-भवपरम्परा का अनुप्रेक्षण (अनुचिन्तन) करना। जैसे—यह जीव अनादिकाल से संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण कर रहा है। इस संसाररूपी महासागर से पार होना अत्यन्त दुष्कर हो रहा है। यह जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव भवों में एक के बाद दूसरे में सतत अविरत परिभ्रमण कर रहा है । इस प्रकार की भावना से शुक्लध्यानी संसार से शीघ्र छूटने का तीव्रता से उपाय करता है।
(२) विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार करना। जैसे—सभी स्थान अशाश्वत हैं, परिणमित होते रहते हैं। मनुष्यलोक एवं देवलोक के स्थान तथा यहाँ और वहाँ की ऋद्धियाँ एवं सुखभोग सभी अस्थायी हैं। इस प्रकार की भावना विपरिणामानुप्रेक्षा है।
(३) अशुभानुप्रेक्षा—संसार के अशुभ-स्वरूप या देह के घिनौने रूप पर विचार करना। जैसेधिक्कार है इस संसार को, जिसमें सुन्दर रूपवान् अभिमानी मानव मर कर अपने ही मृत देह में कृमिरूप में पैदा