Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक - ७]
तृतीय आलोचनाद्वार : आलोचना करने तथा सुनने योग्य साधकों के गुण
• १९२. दसहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसं आलोएत्तए, तं जहा — जातिसंपन्ने १ कुलसंपन्ने २ विणयसंपन्ने ३ णाणसंपन्ने ४ दंसणसंपन्ने ५ चरित्तसंपन्ने ६ खंते ७ दंते ८ अमायी ९ अपच्छाणुतावी १० ।
[१९२] दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की आलोचना करने योग्य होता है । यथा— (१) जातिसम्पन्न, (२) कुलसम्पन्न, (३) विनयसम्पन्न, (४) ज्ञानसम्पन्न, (५) दर्शनसम्पन्न, (६) चारित्रसम्पन्न, (७) क्षान्त (क्षमाशील), (८) दान्त, (९) अमायी और (१०) अपश्चात्तापी ।
१९३. अट्ठहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा — आयारवं १ आहारवं २ ववहारवं ३ उव्वीलए ४ पकुव्वए ५ अपरिस्सावी ६ निज्जवए ७ अवायदंसी ८ । [ दारं ३] [१९३] आठ गुणों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने (सुनने और सुनकर प्रायश्चित्त देने) के योग्य होते हैं । यथा— (१) आचारवान्, (२) आधारवान्, (३) व्यवहारवान्, (४) अपव्रीडक, (५) प्रकुर्वक, (६) अपरिस्रावी, (७) निर्यापक और (८) अपायदर्शी । [ तृतीय द्वार ]
विवेचन — आलोचना करने योग्य अनगार : दस गुणों से सम्पन्न - ( १ ) जातिसम्पन्न – मातृपक्ष के कुल को जाति कहते हैं । उत्तम जाति (मातृकुल) वाला बुरा कार्य नहीं करता । कदाचित् उससे भूल हो भी जाती है तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है। (२) कुलसम्पन्न – (पितृवंश) को कुल कहते हैं । उत्तम कुल (पितृवंश) में पैदा हुआ व्यक्ति स्वीकृत प्रायश्चित्त को सम्यक् प्रकार पूर्ण करता है । ( ३ ) विनयसम्पन्न — विनयवान् साधु, बड़ों की बात मानकर पवित्र हृदय से आलोचना करता है । ( ४ ) ज्ञानसम्पन्न — सम्यग्ज्ञानवान् साधु मोक्षमार्ग की आराधना करने के लिए क्या करना उचित है और क्या नहीं, इस बात को भलीभांति समझ कर आलोचना करता है । (५) दर्शनसम्पन्न — श्रद्धावान् साधक भगवान् के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त से होने वाली शुद्धि को मानता और श्रद्धापूर्वक आलोचना करता है । (६) चारित्रसम्पन्न — उत्तम अथवा विशुद्ध चारित्र पालन करने वाला साधक चारित्र को शुद्ध रखने के लिए दोषों की आलोचना करता है । (७) क्षान्त — क्षमावान्। किसी दोष के कारण गुरु उपालम्भ आदि मिलने पर वह क्रोध नहीं करता और सहिष्णुतापूर्वक समभाव से दिया हुआ प्रायश्चित्त सहन करता है, अपना दोष स्वीकार करके आलोचना करता है । (८) दान्त — इन्द्रियों को वश में रखने वाला । इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्त साधक कठोर से कठोर प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है। वह पापों की आलोचना भी शुद्ध चित्त से करता है । (९ ) अमायी — छल-कपट और दम्भ से रहित । अपने पाप को बिना छिपाए वह स्वच्छ हृदय से आलोचना करता है । (१०) अपश्चात्तापी - आलोचना करने के बाद पश्चात्ताप नहीं करने वाला। ऐसा व्यक्ति आराधक होता है ।
आलोचना सुनने (सुनकर योग्य प्रायश्चित्त देने ) योग्य अनगार — आठ गुणों से युक्त होते हैं । यथा ( १ ) आचारवान् — ज्ञानादि पांच प्रकार के आचार से युक्त, (२) आधारवान् — बताए हुए अतिचारों (दोषों) को मन में धारण करने वाले, (३) व्यवहारवान् — आगमव्यवहार, श्रुतव्यवहार, धारणाव्यवहार, जीतव्यवहार आदि पांच प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता । (४) अपव्रीडक — लज्जा से अपने दोषों को छिपाने