Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक- ७ J
प्रथम प्रतिसेवनाद्वार : प्रतिसेवना के दस भेद
१९०. दसविहा पडिसेवना पन्नत्ता, तं जहा—
[ ४८५
दप्प १ प्पमाद - Sणाभोगे २-३ आउरे ४ आवती ५ ति य ।
संकिणे ६ सहसक्कारे ७ भय ८ प्पदोसा ९ य वीमंसा १० ॥ ७ ॥ [ दारं १ ]।
[१९०] प्रतिसेवना दस प्रकार की कही हैं, यथा [गाथार्थ ] – (१) दर्पप्रतिसेवना, (२) प्रमादप्रतिसेवना, (३) अनाभोगप्रतिसेवना, (४) आतुरप्रतिसेवना, (५) आपत्प्रतिसेवना, (६) संकीर्णप्रतिसेवना, (७) सहसाकारप्रतिसेवना, (८) भयप्रतिसेवना, (९) प्रद्वेषप्रतिसेवना और (१०) विमर्शप्रतिसेवना ॥ ७ ॥ [प्रथम द्वार ]
विवेचन— प्रतिसेवना के प्रकार और स्वरूप — पाप या दोषों के सेवन से होने वाली चारित्र की विराधना को ‘प्रतिसेवना' कहतें हैं । उनके मुख्य दस भेद हैं- ( १ ) दर्पप्रतिसेवना— अभिमान (अहंकार) पूर्वक होने वाली संयम की विराधना । (२) प्रमादप्रतिसेवना— अष्टविध मदजनित या मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा आदि प्रमादों के सेवन से होने वाली संयमविराधना । ( ३ ) अनाभोगप्रतिसेवना— अनजान 'में हो जाने वाली संयमविराधना । (४) आतुरप्रतिसेवना – भूख, प्यास, रोग-व्याधि आदि किसी पीड़ा से व्याकुलतावश की गई संयम की स्खलना। (५) आपत्प्रतिसेवना- किसी आफत, संकट या विपत्ति के आने पर की गई संयम की विराधना । आपत्ति चार प्रकार की होती है । द्रव्य - आपत्ति—प्रासुक, दोषरहित आहारादि न मिलना । क्षेत्र - आपत्ति— मार्ग भूल जाने से भयंकर अटवी आदि में भटक जाना अथवा उक्त क्षेत्र में दुर्भिक्ष, भूकम्प या अन्य क्षेत्रीय संकट आ पड़ना । काल- आपत्ति—दुभिक्ष, दुर्दिन आदि और भाव- आपत्ति—रोगातंक से शरीर अस्वस्थ - अशक्त हो जाना । ( ६ ) संकीर्णप्रतिसेवना—— स्वपक्ष और परपक्ष से होने से होने वाली स्थान की तंगी के कारण संयम मर्यादा का अतिक्रमण करना । अर्थात् छोटे-छोटे क्षेत्रों में साधु, साध्वियों तथा भिक्षाचरों के अधिक संख्या में इकट्ठे हो जाने से संयम में दोष लगना । शंकित प्रतिसेवना——– ग्रहणयोग्य आहारादि में किसी दोष की आशंका होने पर भी उसे लेना । अथवा निशीथसूत्रानुसार आहारादि के न मिलने पर खेद पूर्वक वचन बोलना तिंतिणप्रतिसेवना है। (७) सहसाकारप्रतिसेवना— हठात् या अकस्मात् पहले विना सोचे-विचारे, अथवा विना प्रतिलेखना किए कोई दोषयुक्त प्रवृत्ति करना । यथा— पहले विना देखे सहसा भूभि पर पैर आदि रखना और पीछे देखना । ( ८ ) भयप्रतिसेवना — सिंह आदि के भय से संयम की विराधना करना । (९) प्रद्वेषप्रतिसेवना – किसी के प्रति द्वेष, ईर्ष्या या क्रोधादिकषाय के वश संयम की विराधना करना और (१०) विमर्शप्रतिसेवना— शिष्य की परीक्षा आदि के लिये विचारपूर्वक की गई संयम की विराधना ।
इन दस कारणों में से किसी भी कारण से संयम की विराधना की जाती या हो जाती हैं। आलोचना करते समय गुरु इसका निर्णय करते हैं ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१९
(ख) भगवती. (हिन्दी - विवेचन) भा. ७, पृ. ३४८६-३४८७