Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र.] वचनयोगप्रतिसंलीनता किस प्रकार की है ? __ [उ.] वचनयोगप्रतिसंलीनता इस प्रकार की है—अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा और वचन की एकाग्रता करना। यह वचनयोगप्रतिसंलीनता है।
२१५. से किं तं कायपडिसंलीणया?
कायपडिसंलीणया जं णं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणि-पाए कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्ठइ। से तं कायपडिसंलीणया। से तं जोगपडिसंलीणया।
[२१५ प्र.] कायप्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ?
[२१५ उ.] कायप्रतिसंलीनता है—सम्यक् प्रकार से समाधिपूर्वक प्रशान्तभाव से हाथ-पैरों को संकुचित करना (सिकोड़ना), कछुए के समान इन्द्रियों का गोपन करके आलीन-प्रलीन (स्थिर) होना। यह हुआ योगप्रतिसंलीनता का वर्णन।
२१६. से किं तं विवित्तसयणासणसेवणता ?
विवित्तसयणासणसेवणया जंणं आरामेसु वा उज्जाणेसु वा जहा सोमिलुद्देसए (स० १८ उ० १० सु० २३) जाव सेज्जासंथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरति। से तं विवित्तसयणासणसेवणया। से तं पडिसंलीणया। से त्तं बाहिरए तवे।
[२१६ प्र.] विविक्तशय्यासनसेवनता किसे कहते हैं ?
[२१६ उ.] विविक्त (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित) स्थान में अर्थात्-आराम (बगीचों) अथवा उद्यानों आदि में, (अठारहवें शतक के दसवें सोमिल-उद्देशक के सू. २३) के अनुसार, यावत् निर्दोष शय्यासंस्तारक आदि उपकरण लेकर रहना विविक्तशय्यासनसेवनता है। यह हुई विविक्तशय्यासनसेवनता। इस प्रकार प्रतिसंलीनता का वर्णन पूर्ण हुआ। साथ ही बाह्यतप का वर्णन पूर्ण हुआ।
विवेचन–प्रतिसंलीनता : विशेषार्थ, उद्देश्य और प्रकार—प्रतिसंलीनता का सामान्य अर्थ हैगोपन करना अथवा तल्लीन हो जाना। इसका विशेषार्थ है-इन्द्रिय, कषाय और योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना, शुभ योग में प्रवृत्त होना, शुभ योग में एकाग्र होना। मुख्यरूप से इसके चार भेद हैं—इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता और विविक्तशय्यासनसेवनता। इन्द्रियप्रतिसंलीनता के पांच, कषायप्रतिसंलीनता के चार और योगप्रतिसंलीनता के तीन भेद; ये कुल बारह और तेरहवां विविक्तशय्यासनसेवनता; ये सभी मिलाने से तेरह भेद होते हैं। इनके विशेषार्थ मूलपाठ में स्पष्ट हैं । इन प्रतिसंलीनताओं के उद्देश्य भी मूल में स्पष्ट हैं।
ये बाह्यतप क्यों और किसलिए?—अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२३
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. २ की टिप्पणी (मू. पा. टि.), पृ. १०५३ (ग) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७. पृ. ३५०६