Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[१९९ उ.] इत्वरिक अनशन अनेक प्रकार का कहा गया है, यथा- - चतुर्थभक्त (उपवास), षष्ठभक्त (बेला), अष्टम-भक्त (तेला), दशम-भक्त (चौला), द्वादशभक्त ( पचौला), चतुर्दशभक्त (छह-उपवास), अर्द्धमासिक (१५ दिन के उपवास), मासिकभक्त (मासखमण — एक महीने के उपवास ) — द्विमासिकभक्त, त्रिमासिकभक्त यावत् पाण्मासिक भक्त । यह इत्वरिक अनशन है।
२००. से किं तं आवकहिए ?
आवकहिए दुविधे पन्नत्ते तं जहा — पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य ।
[२०० प्र.] भगवन्! यावत्कथिक अनशन कितने प्रकार का कहा गया है ?
[२०० उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है । यथा —— पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । २०१. से किं तं पाओवगमणे ?
पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा — नीहारिमे य, अनिहारिमे य, नियमं अपडिकम्मे । से तं पाओवगमणे ।
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[२०१ प्र.] पादपोपगमन कितने प्रकार का कहा गया है ?
[२०१ उ.] गौतम ! पादपोपगमन दो प्रकार का कहा गया है। यथा— निर्ह्रारिम और अनिहरिम। ये दोनों नियम से अप्रतिकर्म होते हैं। यह हैं—पादपोपगमन |
२०२. से किं तं भत्तपच्चक्खाणे ?
भत्तपच्चक्खाणे दुविधे पन्नत्ते, तं जहा — नीहारिमे य, अनिहारिमे य, नियमं सपडिकम्मे । से तं आवकहिए। से त्तं अणसणे ।
[२०२ प्र.] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन क्या है?
[२०२ उ.] भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है, यथा— निर्धारिम और अनिर्धारिम। यह नियम से सप्रतिकर्म होता है। इस प्रकार यावत्कथित अनशन और साथ ही अनशन का निरूपण पूरा हुआ।
विवेचन—अनशन के कतिपय प्रकारों की संख्या और उनके विशेषार्थ — अनशन का सामान्यतया अर्थ है—आहार का त्याग करना । इसके दो भेदों में इत्वरिक अनशन का अर्थ है- अल्पकाल के लिए किया जाने वाला अनशन | प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक वर्ष, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में उत्कृष्ट ६ मास तक का इत्वरिक अनशन होता है। इसके चतुर्थ भक्त आदि अनेक भेद हैं। चतुर्थभक्त उपवास की, षष्ठभक्त बेले की, अष्टमभक्त तेले की (तीन उपवास की) संज्ञा है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए।
यावत्कथिक अनशन यावज्जीवन का होता है। उसके दो भेद हैं— पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान ।
पादपोपगमन का अर्थ है— कटे हुए वृक्ष की तरह अथवा वृक्ष की कटी डाली के समान शरीर के किसी भी अंग को किञ्चित् मात्र भी नहीं हिलाते हुए अशन-पान - खादिम - स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का त्याग करके निश्चलरूप से संथारा करना ।